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अमेरिका में H-1B वीजा पर भारतीय IT कंपनियों ने इसलिए किया रणनीतिक बदलाव

भारतीय IT कंपनियां अमेरिका में स्थानीय प्रतिभाओं में भारी निवेश कर रही हैं और अमेरिका में काम करने वाले अनुभवी पेशेवरों को ग्रीन कार्ड स्पॉन्सर्स करने का भी ऑफर दे रही हैं। TCS, Wipro, Infosys और HCL जैसे भारतीय आईटी दिग्गजों ने H-1B वीजा का इस्तेमाल 56% तक कम कर दिया है। 

भारत का टेक सेक्टर अमेरिका में एक मजबूत प्रतिभा पाइपलाइन बनाने के लिए लगातार मेहनत कर रहा है। / Pexels

अमेरिका में भारतीय आईटी कंपनियां एक रणनीतिक बदलाव के दौर से गुजर रही हैं। एक तरफ अमेरिका की बड़ी-बड़ी कंपनियां, जैसे Amazon, Meta, Google, और Microsoft ने H-1B वीजा वालों पर अपनी निर्भरता ज्यादा बढ़ा दी हैं। वहीं, भारतीय आईटी कंपनियों ने इसका उल्टा रवैया अपनाया है। उनका H-1B वीजा पर निर्भरता कम करने का रुख है। 

इकोनॉमिक टाइम्स ने अपनी एक स्टडी में बताया है कि 2016 के बाद से अमेरिकी टेक कंपनियों ने H-1B वीजा का इस्तेमाल 189% तक बढ़ा दिया है। Amazon ने तो इस मामले में सबसे अधिक 478% तक की बढ़ोतरी की है। वहीं, Meta ने 244% और Google ने 137% का इजाफा किया है। दूसरी तरफ़, TCS, Wipro, Infosys और HCL जैसे भारतीय आईटी दिग्गजों ने H-1B वीजा का इस्तेमाल 56% तक कम कर दिया है। 

यह भारतीय IT कंपनियों के रणनीतिक बदलाव को दिखाता है। अब ये कंपनियां अमेरिका में स्थानीय प्रतिभाओं में भारी निवेश कर रही हैं और अमेरिका में काम करने वाले अनुभवी पेशेवरों को ग्रीन कार्ड स्पॉन्सर्स करने का भी ऑफर दे रही हैं। जैसे-जैसे ये कंपनियां अमेरिकी बाजार में मजबूत कदम रख रही हैं, वैसे-वैसे वो देश के अंदर ही सतत विकास को प्राथमिकता दे रही हैं।

कॉरपोरेट इमिग्रेशन लॉ फर्म गोयल एंड एंडर्सन के मैनेजिंग पार्टनर विक गोयल कहते हैं कि अमेरिकी कंपनियों को H-1B वीजा पर निर्भर रहना पड़ता है। इसकी वजह ये है कि उन्हें ऐसे कौशल वाले लोग चाहिए जो आसानी से देश में नहीं मिलते, खासकर डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन, क्लाउड कंप्यूटिंग और AI जैसे नए टेक्नोलॉजी क्षेत्रों में। उनका मानना है कि इन खास क्षेत्रों में विशेषज्ञता को लेकर कड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है। 

लेकिन हाल ही में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव ने (जो कड़े इमिग्रेशन नीतियों के लिए जाने जाते हैं) H-1B और H-4 वीजा धारकों (H-1B धारकों के जीवनसाथियों) के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं। ट्रम्प प्रशासन इमिग्रेशन और राष्ट्रीयता अधिनियम में बदलाव कर सकता है, जिसमें देश-स्फेसिफिक कोटा भी शामिल हो सकता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के साथ अमेरिका के मजबूत राजनयिक संबंधों के कारण, यह बदलाव भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है। दिल्ली स्थित Circle of Counsels के पार्टनर रसेल ए स्टैमेट्स का मानना है कि जिन भारतीय कंपनियों का अमेरिका में बड़ा कारोबार है, उन्हें अमेरिकी नीतियों में बदलाव के हिसाब से खुद को ढालना चाहिए ताकि वो अच्छे परिणाम हासिल कर सकें। 

इन नीतियों में बदलाव से विदेशी प्रतिभाओं के लिए खर्च और भी बढ़ सकता है। H-1B वीजा के लिए फीस बढ़ने की संभावना है। और इन रोल के लिए सैलरी की ज्यादा मांग होने लगेगी, जिससे कंपनियों पर और भी दबाव पड़ेगा। ट्रम्प के पिछले कार्यकाल में H-1B वीजा आवेदनों पर पहले से कहीं ज्यादा सख्ती हुई थी। 34% आवेदनों के लिए अतिरिक्त दस्तावेज मांगे गए थे। इससे वीजा धारकों और उनके परिवारों को बहुत चिंता हुई थी, क्योंकि H-4 वीजा धारकों पर काम करने की योग्यता छिनने का खतरा मंडरा रहा था। 

इन सभी मुश्किलों के बावजूद, भारत का टेक सेक्टर अमेरिका में एक मजबूत प्रतिभा पाइपलाइन बनाने के लिए लगातार मेहनत कर रहा है। नैस्कॉम जैसे इंडस्ट्री बॉडी के जरिए भारतीय कंपनियों ने स्टेम इनिशिएटिव में 1.1 बिलियन डॉलर का निवेश किया है। 130 से ज्यादा अमेरिकी कॉलेज और यूनिवर्सिटी के साथ साझेदारी की है और लगभग 255,000 कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी है। इस निवेश से अमेरिका में 600,000 से ज्यादा नौकरियां बनी हैं। ये साबित करता है कि भारत, अमेरिकी टेक इकोसिस्टम के लिए कितना गंभीर है, चाहे वीजा नीतियां जितनी भी बदलें।

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