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जेएनयू के छात्रों का तिहाड़ जेल ब्रेक, नेटफ्लिक्स ने खोला राज, लोगों को खूब भा रही है सीरीज

नेटफ्लिक्स की सीरीज 'ब्लैक वॉरंट' भारतीय दर्शकों को खूब पसंद आ रही है। इसमें 1983 में जेएनयू के छात्रों के तिहाड़ जेल से भागने की सच्ची कहानी है, जो न सिर्फ एक जेल ब्रेक है, बल्कि युवाओं के आदर्शवाद और प्रतिरोध की कहानी भी।

एक साथी कैदी ने विजिटर की मुहर को अपनी कलाई पर लगाने की योजना बनाई, जिससे अन्य छात्रों के भागने का रास्ता साफ हुआ। / Netflix Official Site

नेटफ्लिक्स (Netflix) की नई सीरीज 'ब्लैक वॉरंट' धमाकेदार रिव्यूज बटोर रही है और भारतीयों को खूब पसंद आ रही है। खासकर पुरानी दिल्ली के लोगों को ये सीरीज खूब भा रही है, क्योंकि इसमें दिल्ली की क्राइम हिस्ट्री दिखाई गई है। ये सीरीज तिहाड़ जेल में सजा पाए कैदियों की कहानी दिखाती है।

इसमें 1983 की एक हैरान करने वाली घटना भी दिखाई गई है। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के 168 स्टूडेंट्स का तिहाड़ जेल से भागना। आगजनी और दंगे के आरोप में करीब 250 जेएनयू के छात्र गिरफ्तार हुए थे। हैरानी की बात है कि 168 स्टूडेंट्स, जिनमें 55 लड़कियां भी शामिल थीं, जेलरों की नजरों से बचकर भाग निकले। जिन 80 लोगों को जमानत मिली उनमें नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी, जेएनयू के डीन अमिताभ मट्टू और सिविल सर्वेंट डॉ. अमिया चंद्रा भी शामिल थे।

जेएनयू के उन छात्रों में से एक अमिताभ मट्टू भी थे। उन्हें गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेजा गया था। वह आज जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के डीन हैं। मई 1983 में वो जेएनयू के छात्र संगठन 'फ्री थिंकर्स' के मेंबर थे। बाद में इसके कन्वीनर भी बने। वो उस वक्त के बारे में बताते हैं कि 'मई 1983 में मैं लगभग 10 दिन दिल्ली की तिहाड़ जेल में रहा। ये मेरे जीवन का पहला और अब तक का आखिरी अनुभव है। मेरे साथ सैकड़ों जवान लड़के और लड़कियां थे। जिनमें से कई आज डिप्लोमैट्स, प्रोफेसर्स, सांसद, साइंटिस्ट और एडिटर्स हैं। तिहाड़ का अनुभव जिंदगी बदल देने वाला था।'

मट्टू का कहना है, '1983 की घटना को लेकर हर किसी का अपना-अपना नजरिया है। अधिकतर लोगों के लिए ये सिद्धांतों का सवाल था। उस समय जब सबको लगता था कि छात्रों की ताकत सर्वोच्च है और छात्र संघ लगभग सर्वसत्ता संपन्न है। एक छात्र को बिना किसी जांच-पड़ताल के हॉस्टल से निकाल दिया गया था। छात्र संघ ने ताला तोड़कर उसका कमरा उसे वापस दे दिया। नतीजतन, संघ के दो पदाधिकारियों को कॉलेज से निकाल दिया गया। उसके बाद कुलपति और रेक्टर का जो 'अमानवीय' घेराव हुआ, उसे सही ठहराना मुश्किल है। छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बाद यूनिवर्सिटी ने पुलिस को बुलाया था।

'हमें लगा कि हम विरोध के तौर पर जान-बूझकर गिरफ्तारी दे रहे हैं। हमें अपने काम की सही में यकीन था। लेकिन अगली सुबह जेल में जागने पर हमें पता चला कि दिल्ली सरकार ने हम पर 'हत्या की कोशिश' और 'दंगा' करने के आरोप लगाया है। उनकी मंशा थी कि कैंपस को 'रोमांटिक क्रांतिकारियों' से 'साफ' किया जाए।'

मूल रूप से बिहार की डॉ. अमिया चंद्रा जो उस समय जेएनयू की छात्रा थीं और अब गुजरात SEZs और EOUs में रिटायर्ड जोनल डेवलपमेंट कमिश्नर हैं। उन्होंने कहा, 'मैं सिर्फ 20 साल की थी। डर के मारे मैंने बिहार में कभी वोट भी नहीं दिया था। और यहां मैं खुद को तिहाड़ जेल में पा रही हूं।' चंद्रा ने कहा, 'मेरे साथी छात्रों ने मुझसे कहा कि गिरफ्तारी से बच जाना कायरता होगी। हम आदर्शवादी थे और हमें इस बात पर पूरा यकीन था कि हम दुनिया बदल सकते हैं।'

छात्र, 'हम होंगे कामयाब' और दूसरे जोशीले गाने गाते हुए तिहाड़ जेल में दाखिल हुए। कुछ ने अपने आईडी कार्ड फाड़ दिए और फर्जी नाम इस्तेमाल किए। लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग कमरों में रखा गया। गलत नाम लेने की अपनी ही मुसीबतें थीं। दो लड़कों ने अपना नाम राम प्रसाद, दशरथ प्रसाद का बेटा रखा था। जब नाम पुकारा जाता, तो दोनों लड़के खड़े हो जाते। चंद्रा हंसते हुए कहती हैं, 'फिर हमें उन्हें राम प्रसाद 1 और राम प्रसाद 2 कहना पड़ा।'

सब पर एक ही आरोप आगजनी की कोशिश, लूट, डकैती, रेप की कोशिश, हत्या की कोशिश, वगैरह लगाए गए। चंद्रा ठहाका लगाकर बोलीं, 'हत्या के अलावा उन्होंने हम सब पर सारे इल्जाम लगा दिए। लड़कियों पर भी रेप की कोशिश का आरोप लगाया गया।' आखिरकार, 12 दिन बाद राजनेताओं ने 80 से अधिक छात्रों को जमानत दिला दी।

'ब्लैक वॉरंट' के एपिसोड में जेलर हैरान रह जाते हैं जब 168 छात्र उस जेल से भाग जाते हैं जहां से सख्त अपराधी भी नहीं भाग पाए थे। एक बेबाक साथी कैदी केएम ने भीषण गर्मी में एक विजिटर की मुहर को अपनी कलाई पर लगाने की योजना बनाई और सबसे पहले भाग गया, जिससे यह एक ट्रेंड बन गया।

इस घटना ने छात्रों को बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए प्रेरित किया। डॉ. चंद्रा ने छात्रों के अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया और 1986-87 में जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष चुनी गईं। भागे हुए छात्रों में से एक इंस्पेक्टर जनरल बनकर तिहाड़ जेल वापस लौटा और उस जेल अधिकारी का बॉस बन गया, जिसे उस भागने की घटना के लिए निलंबित कर दिया गया था। 

मट्टू कहते हैं, 'तिहाड़ का अनुभव अपने आप में जीवन बदल देने वाला था। यह आदर्शवाद के गुणों और उसकी सीमाओं को पहचानने के बारे में था। आजादी के महत्व और उसकी सीमाओं को पहचानने के बारे में। भारतीय राज्य की शक्ति और प्रतिरोध की सीमाओं को पहचानने के बारे में। और सबसे बढ़कर, यह इस बारे में था कि कैसे कैद शुरू में आपको मनोवैज्ञानिक रूप से अपंग कर सकती है, लेकिन एक बार शुरुआती परेशानी दूर हो जाने के बाद, यह वास्तव में मुक्त कर सकती है और आपको अपने भीतर के स्व के साथ तालमेल बिठाने में मदद कर सकती है - बहुत कुछ विपश्यना ध्यान की तरह।'

'हम सभी को जमानत मिल गई, कुछ वर्षों में आरोप हटा दिए गए। हम में से अधिकांश अपने छोटे-बुर्जुआ करियर, परिवारों और महत्वाकांक्षाओं की दुनिया में वापस चले गए। लेकिन मई 1983 को कौन कभी भूल सकता है? आप मुझे तिहाड़ से बाहर ले जा सकते थे, और ले गए, लेकिन तिहाड़ को मुझसे बाहर नहीं ले जा सकते।' 

 

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