ADVERTISEMENTs

हाथ में बड़ा-सा डंडा रखो... और बात भी मत करो

दूसरों के मामलों में अपनी नाक घुसेड़ने की पश्चिमी देशों की आदत सुधरने वाली नहीं है। अजीब तरह से जर्मनी द्वारा शुरू किया गया मौजूदा प्रकरण इसका उदाहरण है। लेकिन नई दिल्ली की प्रतिक्रिया में न तो उसकी बेचैनी झलकनी चाहिए और न ही इस मामले को बढ़ाने की खुजली।

अमेरिका और भारत के प्रवक्ता इन दिनों आमने सामने हैं। / साभार सोशल मीडिया

भारत में कई ऐसे लोग हैं जो अपने दायरे से बाहर हो रहे हैं या यह सोच-सोचकर अपनी रातों की नींद हराम कर रहे हैं कि कुछ पश्चिमी देशों के प्रवक्ताओं की उन टिप्पणियों का "मुंहतोड़" जवाब कैसे दें, जिन्हें देश के आंतरिक मामलों में दखल की तरह देखा जा रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता द्वारा वाशिंगटन में भारतीय चुनाव प्रक्रिया, दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी और कांग्रेस पार्टी के बैंक खाते फ्रीज किए जाने को लेकर जो कुछ कहा, और उस पर नई दिल्ली में साउथ ब्लॉक ने जिस तरह से कथित रूप से 'जैसे के साथ तैसा' बर्ताव किया, उसे कुछ हलकों में भारत द्वारा अंतरराष्ट्रीय सिस्टम में अपनी स्थिति के अनुरूप ताकत दिखाने की तरह देखा जा रहा है।

बहुत से अमेरिकी इस बात को लेकर रोना धोना कर रहे हैं कि उनकी सरकार को क्या कहना चाहिए और क्या नहीं। खासकर जब बात उंगली उठाने की आती है, वो चाहे भारत पर हो या फिर दुनिया में किसी और पर। दुर्भाग्य की बात है कि यह एक ऐसी बीमारी की तरह है जिससे व्हाइट हाउस में एक के बाद एक आने वाला प्रशासन बहुत लंबे समय से पीड़ित हैं। वाशिंगटन को, खासतौर से उन देशों में जो उसे असहज करते हैं, चुनावों की फिक्सिंग की तरफ उंगली उठाने की इतनी जल्दी रहती है कि वो यह भूल जाता है कि उसकी खुद की केंद्रीय खुफिया एजेंसी की कभी चुनावी प्रक्रिया को तहस नहस करने या कानूनी रूप से चुने गए नेताओं को बेशर्मी से उखाड़ फेंकने में भूमिका रही है। ईरानियों से पूछकर देखें कि 1953 में क्या हुआ था और आपको 1979 की क्रांति का जवाब मिल जाएगा। और यह तो सिर्फ शुरुआत है।

बाइडेन प्रशासन को इस बात को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए कि भारत में उचित प्रक्रिया अपनाई जाएगी या नहीं या फिर या 19 अप्रैल से शुरू होने वाले लोकसभा चुनाव में सभी को एक समान अवसर मिलेंगे या नहीं। भारतीय यह स्वीकार करने में सबसे आगे होंगे कि उनका देश एक "परफेक्ट" लोकतंत्र नहीं है। इस नजरिए से देखें तो संयुक्त राज्य अमेरिका भी परफेक्ट नहीं है। लेकिन वाशिंगटन के लिए जो ध्यान में रखने वाली बात है, वो ये है कि वह दक्षिण एशिया और अन्य जगहों पर राजनीतिक रूप से सुकून देने वाली सरकारों को न तो क्लीन चिट दे और न ही उनकी ऐसी हास्यास्पद तुलना करें। इससे उसकी वैश्विक ताकत के रूप में उसकी विश्वसनीयता को बढ़ावा नहीं मिलेगा। मतभेद तो होते हैं और होंगे भी, लेकिन तथाकथित करीबी मित्र राष्ट्रों को प्रेस कॉन्फ्रेंस के बजाय शांति से संवाद करके इनका समाधान करना चाहिए।

दूसरों के मामलों में अपनी नाक घुसेड़ने की पश्चिमी देशों की आदत रुकने वाली नहीं है। अजीब तरह से जर्मनी द्वारा शुरू किया गया मौजूदा प्रकरण इसका उदाहरण है। लेकिन नई दिल्ली की प्रतिक्रिया में न तो उसकी बेचैनी झलकनी चाहिए और न ही इस मामले को बढ़ाने की खुजली। इसमें कोई शक नहीं है कि समय बदल गया है। भारत ने लंबे समय तक इंतजार के बाद लगभग हर चीज़ पर पश्चिम से प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया है। इसमें यह भी शामिल है कि वह एक "महान लोकतंत्र" है। एक समय था, जब हमारे कान वाशिंगटन या लंदन की कही बातों को सुनने के लिए आतुर रहा करते थे, चाहे वो बातें अच्छी हों या बुरीं।

साउथ ब्लॉक जानता है कि व्हाइट हाउस या विदेश मंत्रालय की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछे जाने वाले सवालों के पीछे कोई न कोई संदर्भ जरूर होता है। क्लिंटन प्रशासन के दौर में, प्रवक्ताओं द्वारा असहज सवाल करने के लिए मीडियाकर्मियों का खुलकर इस्तेमाल इस्तेमाल किया जाता था। तब यह कहावत कही जाती थी कि जब देश में चल रहे किसी मुद्दे या घोटाले से ध्यान हटाना हो तो किसी विदेशी मामले पर सबका फोकस कर दो। कुछ ऐसा ही इस समय भी लग रहा है, जब संभवतः भारत के बारे में बात करना आसान लग रहा है बजाय एक ऐसे राष्ट्रपति के बारे में चर्चा करने के जिसकी स्थिति जनमत सर्वेक्षणों में और खासकर डेमोक्रेटिक प्रतिष्ठान के भीतर डगमगा रही है। 

Speak softly but carry a big stick (प्यार से बात करो, पर हाथ में बड़ा सा डंडा भी रखो), यह वो कहावत है जिसका श्रेय अक्सर राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट को दिया जाता है। भारतीय अधिकारी इसमें सुधारकर इस तरह इस्तेमाल कर सकते हैं कि (Carry a Big Stick, And Don’t Talk) हाथ में बड़ा सा डंडा रखो और बात भी मत करो। यह समय तुच्छ टिप्पणियों का जवाब देने और राजनयिकों से बात करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने का नहीं है। यह बड़ा सा डंडा उन विकल्पों की याद दिलाता है, जो न केवल सैन्य उपकरणों व सिविलियन कमर्शल विमानों की खरीद में और टेक्नोलोजी ट्रांसफर बल्कि और भी बहुत से समझौतों के दौरान उपलब्ध रहे। आज का दौर ऐसा है, जहां दुनिया में सिर्फ पैसा बोलता है और दूसरा कुछ मायने नहीं रखता, वहां पर सरकारों को अब गहरी नींद से जागना ही होगा और अपने काम से काम रखना सीखना होगा। 


(* डॉ. श्रीधर कृष्णस्वामी, न्यू इंडिया अब्रॉड के मुख्य संपादक हैं। वह 1995 से 2009 तक वाशिंगटन में द हिंदू और प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता भी रहे हैं। उस समय वह नॉर्थ अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र से जुड़े मामले कवर करते थे।)
 

Comments

Related

ADVERTISEMENT

 

 

 

ADVERTISEMENT

 

 

E Paper

 

 

 

Video