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अमेरिकी चुनाव और भारतीयों की चिंता

कई संभ्रांत लोगों सहित भारतीयों को अमेरिकी राजनीति की गहरी समझ नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे अधिकांश अमेरिकी विद्वानों और भारतीय विशेषज्ञों को भारतीय समाज और राजनीतिक परिसर में गहरी अंतर्दृष्टि का अभाव है।

सांकेतिक तस्वीर / file pic
  • अवतन कुमार

मंगलवार, 5 नवंबर को लंबी और कष्टदायक अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया समाप्त होने के साथ ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में काफी चिंता का माहौल है। मैं दो सप्ताह तक भारत में रहा और परिवार, दोस्तों, राजनेताओं, नौकरशाहों, विद्वानों और सार्वजनिक जगत के ख्यात लोगों से मिला। अधिकांश लोग भारत को लेकर खुश और आशावादी हैं। हालांकि अमेरिका की घरेलू राजनीति तथा अमेरिका-भारत संबंधों सहित इसके अंतरराष्ट्रीय प्रभावों को लेकर बहुत अनिश्चितता प्रतीत होती है।   

कई संभ्रांत लोगों सहित भारतीयों को अमेरिकी राजनीति की गहरी समझ नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे अधिकांश अमेरिकी विद्वानों और भारतीय विशेषज्ञों को भारतीय समाज और राजनीतिक परिसर में गहरी अंतर्दृष्टि का अभाव है। अधिकांश भारतीयों को अमेरिकी राजनीति के बारे में जानकारी अमेरिका स्थित वामपंथी-प्रगतिशील विरासत मीडिया से मिलती है। इसका नतीजा यह होता है कि वे अमेरिका की राजनीति के बारे में अत्यधिक टेढ़ा दृष्टिकोण रखने लगते हैं। उदाहरण के लिए अधिकांश भारतीयों के पास दूसरे संशोधन और बंदूक कानून, गर्भपात, 6 जनवरी जैसे गहरे ध्रुवीकरण वाले राजनीतिक मुद्दों पर गैर-आलोचनात्मक प्रगतिशील विचार हैं।

भारतीय लोग अमेरिकी रिपब्लिकन लोकतंत्र, निर्वाचक मंडल और प्राइमरी प्रक्रिया जैसे मामलों की जटिलता को भी नहीं समझ सकते। भारत में वेस्टमिस्टर शैली का बहुसंख्यक संसदीय लोकतंत्र है। लेकिन जब भारतीय लंबी और विवादास्पद मतगणना प्रक्रिया और अत्यधिक उदार मतदाता पहचान-पत्र आवश्यकताओं का उल्लेख करते हैं तो वे अक्सर चकित भी हो जाते हैं। कई बार तो उपहास की स्थिति भी आ जाती है। इसके विपरीत भारत एक दिन में निर्धारित क्षेत्रों में चुनाव कराता है। वहां कोई बहु-दिवसीय मतदान नहीं है, और मेल-इन मतपत्र दुर्लभ हैं। भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है जिसे भारत के संविधान द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने का अधिकार है। चुनाव के अधिकांश परिणाम कुछ ही घंटों के भीतर घोषित कर दिए जाते हैं। 

अधिकांश भारतीय अमेरिका का अनुकरण करना चाहते हैं जहां स्वतंत्रता, कड़ी मेहनत, ईमानदारी और योग्यता का भौतिक सफलता से गहरा संबंध है। पिछले कुछ दशकों ने भारतीयों को किसी भी अन्य देश की तुलना में अमेरिका के करीब ला दिया है। भारतीय भी समझते हैं कि उनकी सुरक्षा और समृद्धि का अमेरिका से गहरा संबंध है। हालांकि, यूरोप और मध्य पूर्व में शांति कायम करने में बाइडेन-हैरिस प्रशासन की अक्षमता ने भारतीयों की नजर में अमेरिका की स्थिति को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया है।

अमेरिका में खालिस्तानी उग्रवाद से निपटने के बाइडेन-हैरिस प्रशासन के तरीके ने भारतीयों के बीच असहज स्थिति पैदा कर दी है। वे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों से निपटने में अमेरिका के दोहरे मापदंड पर सवाल उठाते हैं जबकि अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां ​​राष्ट्रपति जो बाइडेन को धमकी देने के संदेह में यूटा के 70 वर्षीय व्यक्ति को मार सकती हैं। दूसरी ओर  जो व्यक्ति भारतीय विमानों को उड़ाने, भारत के प्रधानमंत्री को मारने की वीडियो धमकी जारी करता है,  उसके राजनयिकों और हिंदू अमेरिकियों को मारने की धमकी देता है उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने अमेरिका की धरती पर आश्रय मिलता है। 

भारतीय भी अत्यधिक धार्मिक और परिवार-उन्मुख हैं। सहिष्णु हिंदू संस्कृति की विरासत के कारण भारतीय समाज स्वाभाविक रूप से उदार है। हालांकि वे अमेरिका में आगे बढ़ाए जा रहे प्रगतिशील जागृत एजेंडे को अपने पारंपरिक मूल्यों और धार्मिक पहचान के अपमान के रूप में देखते हैं। वे अमेरिका में हिंदू अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थलों की रक्षा करने में अमेरिका की असमर्थता की भी निंदा करते हैं। वे बताते हैं कि अमेरिका का USCIRF (संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग), एक विदेश विभाग की एजेंसी, अक्सर भारतीयों को इन मामलों में डांटता है। भले ही भारत की जनसंख्या के आकार को देखते हुए ऐसे उल्लंघनों का पैमाना छोटा हो।

भारतीय लोग भारत के पड़ोस यानी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अमेरिकी संलिप्तता को लेकर भी चिंता जताते हैं। भारत को अफगानिस्तान से अमेरिका की अचानक वापसी से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए संघर्ष करना पड़ा। पाकिस्तानियों ने इस साल की शुरुआत में फरवरी में हुए चुनाव में अमेरिकी हस्तक्षेप का आरोप लगाया था। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने 26 जून, 2024 को एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें पाकिस्तानी चुनावों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने विदेश विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों पर अपने देश में सत्ता परिवर्तन का आरोप लगाया है।

बांग्लादेश में सैन्य समर्थित यूनुस सरकार की स्थापना, जिसमें अधिकांश भारतीय स्पष्ट रूप से अमेरिकी हाथ देखते हैं, ने अपने पूर्वी पड़ोसी के साथ भारत के नाजुक संबंधों को खटास में डाल दिया है। नए इस्लाम समर्थक बांग्लादेशी शासन द्वारा धार्मिक उत्पीड़न की खबरों के बीच भारतीय लोग देश के हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित हैं।

वहीं, चीन अपनी महत्वाकांक्षी योजना के साथ आगे बढ़ ही रहा है। ऐसे में क्या अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था (चाहे वह कितनी भी अपूर्ण और अराजक क्यों न हो) अभी भी अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में कम होती अमेरिकी शक्ति के साथ बढ़ती बहुध्रुवीय दुनिया की जटिलता से निपटने में सक्षम है? संक्षेप में यही सवाल हर किसी के मन में है।

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