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'अडोलेसेन्स' नाम की एक बेहतरीन वेब सीरिज नेटफ्लिक्स पर आई है। अपने नाम को साकार करती यह सीरिज किशोरावस्था के इर्द-गिर्द बुनी गई है। यह एक तेरह साल के लड़के, उसकी भावनाएं, हत्या, अपराधबोध, इनकार और परवरिश के प्रभाव जैसे विषयों पर आधारित है। यह सोचने पर मजबूर करती है कि आज के किशोर का जीवन कितना कठिन है। उनके पास भटकाव के, तनाव के तमाम साधन और कारण आसानी से मौजूद हैं।
यह सीरिज सिंगल शॉट में ऐसे फिल्माई गई है कि आप एक भी फ्रेम मिस करना नहीं चाहते। कहानी तो अच्छी है ही। उस पर ओवन कूपर का कमाल है। जेमी मिलर (अपने पहले ही रोल में) ने क्या शानदार अभिनय किया है। एक ही फ्रेम में मिनट में बदलते उनके चेहरे के भाव आपको हैरान कर देंगे। चार एपिसोड की यह सीरिज आपको देर तक सोचने पर मजबूर कर सकती है। सारे एपिसोड देखने लायक, समझने लायक है। पर तीसरा एपिसोड आपको झकझोर देगा।
एक तेरह साल का लड़का एक मनोचिकित्सक को इतना हैरान कर सकता है, ये देखने लायक है। कभी मासूम, कभी गुस्सैल, कभी माफी मांगता हुआ, तो कभी मनोचिकित्सक को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करता हुआ। कभी उसका मजाक उड़ाता हुआ, तो कभी अपनी बातों से गुमराह करता हुआ और अगले ही पल रोता हुआ। इस सब देखकर मनोचिकित्सक की भी सांसें अटक जाती हैं। वो समझ नहीं पा रही हैं इस किशोर को। जब तक समझ पाती है, सांसें बाहर आती हैं, आँखों से आँसू बहते हैं…
सीरीज में ये नहीं बताया गया कि वो क्यों रो रही है, उनके क्या विचार थे इस किशोर के बारे में। लेकिन जहां तक मुझे समझ आ रहा है, वो सोच रही होगी – मासूमियत और क्रूरता के बीच आज का टीनएजर जी रहा है। इन बच्चों को कैसे बचाया जाए, कैसे समझा जाए।
कई बार हम जितना बच्चों को समझते हैं, वो उनके असली स्वभाव का आधा हिस्सा ही होता है, खासकर टीनएज में। अपनी मासूमियत खोते हुए, जिंदगी के रास्ते पर आगे बढ़ते बच्चों के जीवन में कई चीजें उन्हें प्रभावित करती हैं। कई बार उन्हें गलतियां करना अच्छा लगता है, जैसे वो कोई अल्फा मैन हों। और अगले ही पल उन्हें एहसास होता है कि वो गलत थे।
उनकी गलतियों को देखकर माता-पिता को लगता है कि शायद हमारी परवरिश ही गलत रही होगी। लेकिन हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसमें परवरिश सिर्फ आधी भूमिका निभाती है। बाकी आधी भूमिका कई और चीजें निभाती हैं, जो आपके बच्चों को प्रभावित कर सकती हैं। फिर नए कल्चर में बच्चों को अधिक आजादी देना, उनकी प्राइवेसी में दखल न देना, कई बार और भी खतरनाक साबित हो जाता है। हम ये जान ही नहीं पाते कि हमारे बच्चे बंद कमरे में क्या करते हैं, क्या सोचते हैं?
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