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इमिग्रेशन नीतियां : अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहा है अमेरिका?

अमेरिका कुशल प्रवासियों को अपनाने के बजाय उन्हें बाहर निकाल रहा है जिससे बौद्धिक पलायन और तेज़ हो रहा है।

2010 के दशक में सिलिकॉन वैली के आधे स्टार्टअप भारतीय प्रवासियों द्वारा स्थापित किए गए थे। / Representative Image : Unsplash

विवेक वाधवा 

दशकों तक अमेरिका ने दुनिया भर की बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित करके तकनीक और इनोवेशन के क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए रखा। लेकिन अब यह बढ़त तेजी से खत्म हो रही है। चीन एआई , 5जी, इलेक्ट्रिक वाहनों और एडवांस मैन्यूफैक्चरिंग में आगे निकल चुका है। भारत, जिसे कभी सिर्फ एक आउटसोर्सिंग हब माना जाता था, अब एक टेक्नोलॉजी पावरहाउस बन चुका है। इसी स्थिति के बारे में मैंने अपनी किताब The Immigrant Exodus में आगाह किया था और कहा कहा था कि ग्लोबल टैलंट को बनाए रखने में अमेरिका की असफलता उसे महंगी पड़ रही है।  

अमेरिका कुशल प्रवासियों को अपनाने के बजाय उन्हें बाहर निकाल रहा है जिससे बौद्धिक पलायन और तेज़ हो रहा है। अमेरिका के प्रतिस्पर्धी देश इससे मजबूत हो रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि जिन्होंने अमेरिका की सफलता की बुनियाद रखी थी, वे अब अपने भविष्य की इमारतें कहीं और खड़ी कर रहे हैं।  

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आज से एक दशक पहले मैंने चेताया था कि अगर अमेरिका अपनी खस्ताहाल इमिग्रेशन नीतियों को दुरुस्त नहीं करता तो वह अपनी तकनीकी बढ़त खो देगा। अब यह कोई भविष्यवाणी नहीं बल्कि हकीकत बन चुकी है। हजारों कुशल पेशेवर जो अमेरिकी विश्वविद्यालयों से प्रशिक्षित हुए हैं, इस व्यवस्था से निराश होकर अपने देश लौट रहे हैं। अमेरिकी सिस्टम उन्हें दशकों तक ग्रीन कार्ड के लिए इंतजार करने पर मजबूर करता है। इस अंतहीन संघर्ष से बचने के लिए वे तेजी से उभरते इनोवेशन इकोसिस्टम्स की ओर रुख कर रहे हैं।  

ड्यूक, हार्वर्ड और यूसी बर्कले में किया गया मेरा शोध बताता है कि 2010 के दशक में सिलिकॉन वैली के आधे स्टार्टअप भारतीय प्रवासियों द्वारा स्थापित किए गए थे। लेकिन 2020 के दशक में यह संख्या तेजी से घटने लगी क्योंकि अमेरिका की सख्त इमिग्रेशन नीतियों ने उन्हें अपने यहां टिकने नहीं दिया। अमेरिका की इस गलती का फायदा कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने उठाया और उन्होंने फास्ट ट्रैक वीज़ा नीतियां और स्टार्टअप फ्रेंडली प्रोग्राम लागू किए। नतीजा यह हुआ कि अगली पीढ़ी की अरबों डॉलर की कंपनियां अब सिलिकॉन वैली में नहीं बल्कि बेंगलुरु, टोरंटो और सिंगापुर में बन रही हैं।  

हालात अब इतने बिगड़ चुके हैं कि सिर्फ नए स्नातक या उद्यमी ही नहीं बल्कि अनुभवी अधिकारी और वरिष्ठ शोधकर्ता भी अमेरिका छोड़ रहे हैं। माहौल यह बन चुका है कि अगर आप अप्रवासी हैं तो अमेरिका में आपका स्वागत नहीं है। इसके अलावा भारतीय पेशेवरों के प्रति नेगेटिव भावनाएं भी बढ़ रही हैं। तकनीकी क्षेत्र में उनकी बढ़ती संख्या को लेकर जलन और शत्रुता दिखाई देने लगी है। भारतीय इंजीनियरों और अधिकारियों पर नौकरी छीनने का आरोप लगाया जा रहा है, उन्हें एच-1बी वीज़ा विवादों में जबरन घसीटा जा रहा है और अमेरिका के तकनीकी प्रभुत्व के पतन का ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।  

यह वही भारतीय समुदाय है जिसने सिलिकॉन वैली की कई सबसे बड़ी टेक कंपनियों की नींव रखी थी। लेकिन अब युवा भारतीय इंजीनियर अमेरिका जाने के बजाय भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम में अधिक अवसर देख रहे हैं। अनुभवी पेशेवर भी महसूस कर रहे हैं कि अमेरिका अब उनके लिए पहले जैसा अनुकूल नहीं रहा। वे अपनी बहुमूल्य विशेषज्ञता लेकर भारत लौट रहे हैं, जहां उनकी प्रतिभा को अधिक महत्व दिया जा रहा है।  

अमेरिका को इस प्रतिभा की सख्त जरूरत है। यहां की कंपनियां विशेष तकनीकी नौकरियों को भरने के लिए जूझ रही हैं, फिर भी सरकारी नीतियां विदेशी प्रतिभाओं के लिए दरवाजे बंद कर रही हैं। इनोवेशन को बढ़ावा देने के बजाय अमेरिका उसे कमजोर करने में लगा हुआ है।  

अमेरिका की अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की सबसे बड़ी मिसाल Vionix Biosciences है। मैंने अपनी कंपनी को सिलिकॉन वैली में खडा करने की कोशिश की थी लेकिन वहां जरूरी प्रतिभाएं उपलब्ध ही नहीं थीं। हमारी Vionix Spectra तकनीक विकसित करने के लिए प्लाज्मा फिजिक्स, थर्मो डायनामिक मॉडलिंग, एनालिटिकल केमिस्ट्री, मास स्पैक्ट्रोमीट्री, मटीरियल साइंस, इलेक्ट्रिकल व मैकेनिकल इंजीनियरिंग, मशीन लर्निंग और सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट जैसी विशेषज्ञताओं की जरूरत थी। ये सभी मुख्य रूप से अमेरिकी लैब तक सिमटी हुई थीं। एक स्टार्टअप के लिए इस स्तर की विशेषज्ञता को हासिल करना असंभव था। इस तरह का कुछ करने वाली आखिर कंपनी Theranos थी, जिसने 1.4 बिलियन डॉलर जुटाए थे, लेकिन बाद में जब वह टेक्नोलोजी डिलीवर करने मेंफेल हो गई तो धोखाधड़ी पर उतर आई।

अगर मैं सिलिकॉन वैली में 100 मिलियन डॉलर भी जुटा लेता, तब भी मैं सही प्रतिभाओं को नहीं ढूंढ पाता क्योंकि अमेरिका के इमिग्रेशन नियमों ने इसे असंभव बना दिया है। इसलिए मैंने अपनी कंपनी का अनुसंधान एवं विकास (R&D) कार्य भारत में शिफ्ट कर दिया।  

भारत में मुझे आईआईटी मद्रास में विश्वस्तरीय इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल इंजीनियर मिले। एम्स में मुझे ऐसे मेडिकल शोधकर्ता मिले जो हमारे प्रोजेक्टों में सहयोग करने को तैयार थे। अमेरिका में मैं नौकरशाही की दीवारों से सिर टकराता रहा जबकि भारत में मुझे इनोवेशन का सीधा रास्ता नजर आया। 

आज Vionix अत्याधुनिक चिकित्सा निदान तकनीक विकसित कर रहा है। ऐसा इनोवेशन जो अमेरिका में हो सकता था, लेकिन नहीं हुआ क्योंकि अमेरिकी नीतियों ने इसे संभव ही नहीं होने दिया। अमेरिका नवाचार को बढ़ावा देने के बजाय उसे बाहर धकेल रहा है।  

अमेरिका के पास अब दो ही रास्ते बचे हैं, वह दुनिया की बेहतरीन प्रतिभाओं को अपनाए और अपनी तकनीकी बढ़त बनाए रखे, या फिर अपनी प्रतिबंधात्मक नीतियों को जारी रखे और देखता रहे कि कैसे उसकी "अवसरों की भूमि" होने की पहचान मिटती चली जा रही है।  

अगर अमेरिका ने अपनी मौजूदा राह नहीं बदली तो वह उन देशों में शामिल हो जाएगा जहां प्रतिभा नहीं जाना चाहेगी। और जब ऐसा होगा तो बेहतरीन दिमाग वहीं जाएंगे, जहां उन्हें सम्मान और अवसर मिलेगा।  

अब सवाल यह है कि अमेरिका इस खतरे को कब समझेगा। समझदारी इसी में है कि बहुत देर होने से पहले अक्लमंदी से काम किया जाए।

(लेखक विवेक वाधवा एक प्रतिष्ठित अकादमिक, उद्यमी एवं लेखक हैं जो नवाचार, प्रौद्योगिकी नीति और अप्रवासी उद्यमिता पर शोध के लिए जाने जाते हैं।)

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