बैसाखी मेरे लिए हमेशा एक त्योहार से कहीं अधिक रहा है। यह एक भावना है, एक पुल है जो मेरे वर्तमान को मेरी जड़ों से जोड़ता है। बचपन की यादों में पंजाब के खेत सुनहरे गेहूं से लहलहाते नजर आते हैं, जहां धरती की सोंधी खुशबू और दूर से आती ढोल की थाप गांव में उत्सव की झलक पेश करती थी। फुलकारी पहने महिलाएं और रंगबिरंगी पगड़ी वाले पुरुष आकाश में उड़ती पतंगों की तरह उन्मुक्त होकर नाचते-गाते थे। यही वो आनंद है जो आज अमेरिका में रहते हुए भी मेरे साथ है।
मेरे पिता बलबीर सिंह मोमी जिनका बचपन वर्तमान पाकिस्तान के शेखपुरा में बीता था। उनके लिए यह त्योहार और भी गहरा अर्थ रखता था। विभाजन के बाद भारत आकर उन्होंने हमेशा बैसाखी का जश्न मनाया, लेकिन अपने मूल वतन की टीस हमेशा महसूस रही। किसान होने के नाते वे इस त्योहार का सच्चा अर्थ समझते थे। यह त्योहार सिर्फ फसल की कटाई का नहीं बल्कि मेहनत, आस्था और समुदाय का उत्सव है।
मेरे पिता सुबह जल्दी उठकर खेतों में काम करते, फिर गांववालों के साथ मिलकर पूजा पाठ और उत्सव में शामिल होते। जब कभी वह इस दौरान बांटे जाने वाले छोले-पूड़ी और मीठी खीर के स्वाद की कहानी सुनाते तो उनकी आंखें चमक उठती थीं। आज अमेरिका में बैसाखी का स्वरूप भले ही बदल गया हो, लेकिन सार वही है। गुरुद्वारे में कीर्तन की गूंज सुनाई देती हैं। लंगर की खुशबू बचपन की तरफ ले जाती है। एक तरफ बुजुर्ग लोग गुरु गोबिंद सिंह जी और खालसा पंथ की कहानियां सुनाते हैं, वहीं नई पीढ़ी उत्सुकता से उनकी बातों को सुनती है।
एक कलाकार के रूप में मैं अक्सर इन यादों को कैनवास पर उतारती हूं। सुनहरे खेत, नृत्य करते लोग और वैसाखी की एकजुटता को दर्शाते हैं। यह हमारे बच्चों को सिख विरासत से जोड़ने का मेरा तरीका है। बैसाखी सिर्फ नई फसल या खालसा पंथ की स्थापना का उत्सव नहीं है बल्कि हमारी मूल पहचान का जश्न है। हम चाहें दुनिया में कहीं भी रहें, अपने समुदाय से जुड़े रहने की ताकत यह उत्सव देता है।
बैसाखी का ऐतिहासिक पर्व
14 अप्रैल 2016 को मुझे वाशिंगटन डीसी में व्हाइट हाउस में महिला सशक्तिकरण और सिख लीडरशिप पर बोलने का सम्मान मिला था। मेरे पिता, बेटे और बेटी के साथ बिताया वह पल मेरी सबसे यादगार बैसाखी है।
(लेखिका तान्या मोमी एक आर्टिस्ट हैं। उनकी पेंटिंग्स मानसिक स्वास्थ्य और मानवीय पीड़ा को व्यक्त करती हैं। वह अपने बेटे-बेटी के साथ बे एरिया में रहती हैं।)
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