भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म : राजा हरिश्चंद्र (1913)
अपनी सच्चाई और नैतिक निष्ठा के लिए जाने जाने वाले राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित 'राजा हरिश्चंद्र' को पहली पहली भारतीय फीचर फिल्म माना जाता है। दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित और निर्मित इस फिल्म में कोई महिला नहीं थी बल्कि अभिनेता अन्ना सालुंके ने रानी तारामती की भूमिका निभाई थी। 3 मई, 1913 को बिना किसी समकालिक ध्वनि या संवाद के 30 मिनट की यह फिल्म हिंदी और अंग्रेजी दोनों में इंटरटाइटल के साथ रिलीज हुई, जिसने उस उद्योग को जन्म दिया जिसे आज हम बॉलीवुड कहते हैं। प्रभावी रूप से दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में सम्मानित किया जाता है।
प्रतिबंधित होने वाली पहली भारतीय फिल्म : भक्त विदुर (1921)
भक्त विदुर ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित की जाने वाली शुरुआती भारतीय मूक फिल्मों में से एक थी। कांजीभाई राठौड़ द्वारा निर्देशित और कोहिनूर फिल्म कंपनी द्वारा निर्मित यह फिल्म न केवल अपने सिनेमाई मूल्य के लिए बल्कि अपनी राजनीतिक रंगत के लिए भी ऐतिहासिक महत्व रखती है। यह कहानी महाभारत के एक प्रसंग पर आधारित थी, जो एक बुद्धिमान और नैतिक रूप से ईमानदार चरित्र विदुर पर केंद्रित थी। विदुर अन्याय का विरोध करता था और सत्य और धर्म के लिए खड़ा था। ब्रिटिश सरकार ने फिल्म पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि विदुर को गांधी जैसी खादी धोती पहने हुए दिखाया गया था। यानी फिल्म का नायक विदुर महात्मा गांधी से मेल खाता था जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीक थे। इस फिल्म को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की परोक्ष आलोचना के रूप में देखा गया था। दुर्भाग्य से कई प्रारंभिक भारतीय फिल्मों की तरह भक्त विदुर की कोई ज्ञात प्रतियां नहीं बची हैं, लेकिन सिनेमा में इसकी विरासत महत्वपूर्ण बनी हुई है।
पहली महिला निर्देशक : फातिमा बेगम (1926)
फातिमा बेगम को भारत की पहली महिला निर्देशक होने का गौरव प्राप्त है। वह भारतीय फिल्म उद्योग में एक पथप्रदर्शक थीं, जिन्होंने उस समय लैंगिक बाधाओं को तोड़ा जब फिल्म निर्माण में पुरुषों का वर्चस्व था। फातिमा बेगम ने 1926 में अपनी पहली फिल्म, बुलबुल-ए-परिस्तान का निर्देशन किया। उन्होंने मूक फिल्मों में एक अभिनेत्री के रूप में शुरुआत की और अपने समय की सबसे प्रमुख महिला सितारों में से एक बन गईं। फातिमा ने अक्सर अपनी फिल्मों में काल्पनिक विषयों की खोज की, विस्तृत सेट और वेशभूषा के साथ दृश्यमान भव्य कथाएं बनाईं। उनके काम में अक्सर प्रगतिशील विषयों पर जोर दिया जाता था, जिसमें मजबूत महिला पात्रों को अहमियत दी गई। एक निर्देशक के रूप में उन्होंने कैमरे के सामने और पीछे, दोनों जगह भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भावी पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
पहली टॉकी (बोलती ) फिल्म : आलम आरा (1931)
जब इंपीरियल फिल्म कंपनी ने 14 मार्च, 1931 को आलम आरा को रिलीज किया तो इतिहास रचा गया। अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित यह फिल्म भारत की पहली फिल्म थी जिसमें ध्वनि और संवाद एक साथ थे। यह फिल्म इसी नाम के एक नाटक पर आधारित थी। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर और मोहम्मद खान जैसे कलाकार भी थे, जिसने इसे अपने समय की मल्टी-स्टारर फिल्म बना दिया। यह फिल्म जबरदस्त हिट रही और इस बार ध्वनि के साथ सिनेमा का जादू देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग थिएटर की ओर उमड़ पड़े।
भारतीय फिल्म में पहली दोहरी भूमिका : किस्मत (1943)
हालांकि किस्मत से पहले अभिनेताओं द्वारा फिल्म में दो भूमिकाएं निभाने के उदाहरण सामने आए थे जिसमें अभिनेताओं को पुरुष और महिला दोनों किरदार निभाने पड़ते थे। लेकिन अशोक कुमार अभिनीत फिल्म किस्मत अपनी बोल्ड स्क्रिप्ट के मामले में ही नहीं अविवाहित गर्भावस्था और एक एंटी-हीरो को लेकर भी पहली फिल्म के रूप में विख्यात है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा की पहली ब्लॉकबस्टर फिल्म थी। इस फिल्म से परिवार के सदस्यों को खोने और पाने का चलन भी शुरू हुआ जो 90 के दशक तक जारी रहा।
ऑस्कर जीतने वाली पहली भारतीय : भानु अथैया (1983)
अनुभवी कॉस्ट्यूम डिजाइनर अथैया रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित फिल्म गांधी के लिए प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कार जीतने वाली भारत की पहली हस्ती थीं। 1982 में रिलीज हुई यह फिल्म महात्मा गांधी के जीवन पर आधारित एक महाकाव्य थी। यह पुरस्कार जॉन मोलो के साथ साझा किया गया था।
संयुक्त राष्ट्र में सम्मानित होने वाली पहली भारतीय फिल्म : लगे रहो मुन्ना भाई (2006)
राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई को महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली और 2007 में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में प्रदर्शित की गई। फिल्म का केंद्रीय विषय 'गांधीगीरी' या दैनिक जीवन में गांधीवादी सिद्धांतों का उपयोग करना, वैश्विक दर्शकों को पसंद आया। गांधी की शिक्षाओं को आधुनिक, प्रासंगिक और हास्यपूर्ण तरीके से फिर से प्रस्तुत करने के लिए फिल्म की सराहना की गई। संजय दत्त-विद्या बालन अभिनीत इस फिल्म ने दिखाया कि कैसे लोकप्रिय सिनेमा शांति, सद्भाव और नैतिक जीवन के संदेशों को बढ़ावा दे सकता है। यह फिल्म 10 नवंबर 2007 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र में महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्य के दर्शन का जश्न मनाने वाले एक विशेष कार्यक्रम के हिस्से के रूप में प्रदर्शित की गई थी।
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