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संकट में साथ-साथ भारत-अमेरिका और..

आतंकवाद के खिलाफ जो भी उचित कदम होगा दुनिया के अधिकांश देश उसके लिए भारत का साथ देने पर हामी भर चुके हैं। भारत के एक अन्य शक्तिशाली पड़ोसी चीन ने भी आतंकवाद के हर स्वरूप के खिलाफ अपना रुख जताकर वैश्विक चुनौती का प्रतिकार किया है।

सांकेतिक तस्वीर / X@narendramodi

बीते कुछ समय से युद्ध, संघर्ष और टकराव से जूझ रही दुनिया से शांति का आग्रह करने वाले भारत पर 22 अप्रैल को अचानक महासंकट टूट पड़ा। उत्तर भारतीय राज्य जम्मू कश्मीर की पहलगाम घाटी में आतंकवादियों ने भीषण हमला कर दिया। इस हमले में 26 भारतीय नागरिकों की जान चली गई। पर्यटन के लिहाज से खूबसूरत और मिनी स्विटजरलैंड कही जाने वाली पहलगाम घाटी रक्त से रंग गई, खुशी खौफ में बदल गई और कई परिवार जीवनभर के लिए त्रासद पीड़ा झेलने के लिए विवश हो गये हैं। इस आपदा में दुनिया के तमाम देश भारत के साथ खड़े हैं। इसी क्रम में अमेरिका ने भी आतंकवाद के खिलाफ जंग में भारत का साथ देने का ऐलान किया है। अमेरिका में बसने वाला भारत का विशाल समुदाय इस घटना पर स्तब्ध है। सत्ता के गलियारों से लेकर सामाजिक संगठनों ने भी दुख की इस घड़ी में भारत के साथ खड़े होने की बात कही है। अमेरिका और दूसरे देशों में बसे भारतवंशी न केवल आहत हैं, बल्कि आक्रोशित भी हैं। सभी ने एक स्वर में पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त करने के साथ न्याय की मांग की है।

न्याय यानी दहशतगर्दी का खात्मा। चूंकि अमेरिका खुद आतंकवाद का दंश झेल चुका है और अपने दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान की सरजमीं पर जाकर अंत कर चुका है स्वाभाविक रूप से इस वैश्विक संकट के से निपटने के लिए हर तरह से भारत का साथ देने का वादा करता रहा है। कश्मीर हमले के बाद भी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भारत के प्रधानमंत्री मोदी से फोन पर बात की और पीड़ितों के लिए प्रार्थना तथा आतंक के खिलाफ जंग में अपनी प्रतिबद्धता जताई है। जहां तक भारतवंशियों का सवाल है तो यह त्रासदी उन्हे भी समान रूप से दुखी और संजीदा कर चुकी है। इसलिए क्योंकि आतंकी हमला भले ही उनसे मीलों दूर हुआ है लेकिन आत्मा तो उनकी भी चोटिल हुई है। अपनी धरती से लगाव हर किसी को आजीवन रहता है। यह लगाव या रिश्ता भारतवंशियों की पहली पीढ़ी तक ही सीमित नहीं है बल्कि दूसरी पीढ़ी में भी है और पनप रहा है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के सिलसिलों ने अपने मूल के प्रति जिज्ञासा पैदा की है और यही अपनेपन की एक डोर भी है।  

एक दूसरी जिज्ञासा जो भारत में रहने वाले हर नागरिक के मन है, वह अपनी धरती से दूर बसे अनिवासी भारतीय और भारतीय मूल के लोगों में भी है कि इस हमले का जवाब क्या होगा। यूं भारत सरकार ने कुछ फैसले किये हैं लेकिन एक आम भावना यह है कि भारत अपने 'पड़ोसी' के खिलाफ शक्ति का इस्तेमाल करे। भारत सरकार ऐसा करेगी या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन आम भावना के साथ जाने से पहले भारत के सामने कई किंतु-परंतु हैं। यह सही है कि भारत एक बार पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कर चुका है लेकिन उस और इस स्थिति में बड़ा अंतर है। हां 'जवाब' देने के कई तरीके हो सकते हैं। जरूरी नहीं कि वे प्रत्यक्ष हों। अलबत्ता किसी अप्रत्यक्ष कदम से पहले भी हजार बार सोचना होगा। हो सकता है कि भारत सरकार इसी प्रक्रिया में हो। हां इतना तय है कि आतंकवाद के खिलाफ जो भी उचित कदम होगा दुनिया के अधिकांश देश उसके लिए भारत का साथ देने पर हामी भर चुके हैं। भारत के एक अन्य शक्तिशाली पड़ोसी चीन ने भी आतंकवाद के हर स्वरूप के खिलाफ अपना रुख जताकर वैश्विक चुनौती का प्रतिकार किया है। 

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