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महाकुंभ में कल्पवास: जीवन के पुनर्जागरण की आध्यात्मिक साधना

कल्पवास हमें जीवन और समाज के प्रति अधिक ज़िम्मेदार और निष्ठावान बनाता है।

महाकुंभ / Pexels

डॉ. धनंजय चोपड़ा

महाकुंभ में कल्पवास का अर्थ है जीवन के पुनर्जागरण की आध्यात्मिक साधना। यह केवल आध्यात्मिक चेतना को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि कल्पवास के माध्यम से हम अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावहारिक और समसामयिक चिंतन को भी समृद्ध करने का प्रयास करते हैं। वास्तव में, कल्पवास को जीवन प्रबंधन, मन प्रबंधन और समय प्रबंधन की आध्यात्मिक पाठशाला कहा जा सकता है।

कल्पवास हमें जीवन और समाज के प्रति अधिक ज़िम्मेदार और निष्ठावान बनाता है। इस दौरान हम अपनी चिंताओं से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन सहजता से करने लगते हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि जैसे ही एक कुंभ में कल्पवास पूरा होता है, भक्त माँ गंगा से अगले कुंभ में पुनः कल्पवास करने का आशीर्वाद मांगते हैं।

कल्पवास का गहन अध्ययन
पिछले 20-25 वर्षों में देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने कल्पवास की अवधारणा को समझने और परिभाषित करने का प्रयास किया है। शोधकर्ताओं ने कल्पवास की तैयारी, कल्पवासियों का उत्साह, कठोर नियमों का पालन, इन नियमों का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव तथा उनके विचार और व्यवहार में परिवर्तन जैसे विषयों का अध्ययन किया है।

आज की दुनिया में जब "आर्ट ऑफ़ लिविंग" सिखाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, तब कल्पवास का अध्ययन और भी महत्वपूर्ण हो गया है। जब वैश्विक मंच पर "हैप्पीनेस इंडेक्स" जारी किया जाने लगा है, तो सुख और आनंद का यह पर्व भी गहन अध्ययन की माँग करता है।

जीवन प्रबंधन का प्राचीन सूत्र
वास्तव में, जिस "लाइफ मैनेजमेंट" की बात आज की 21वीं सदी में की जा रही है, वह कल्पवास के माध्यम से वर्षों से संभव होता आया है। यह मन, समय और भावनाओं का प्रबंधन सिखाता है। यदि हम समय और मन प्रबंधन की परीक्षा में सफल हो जाते हैं, तो निश्चित रूप से हम जीवन प्रबंधन में भी सफल हो सकते हैं।

कल्पवास तन और मन के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता है और हमें क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, मोह आदि नकारात्मक भावनाओं से दूर रहने की सीख देता है। यह सामूहिक सुख प्राप्ति की प्रक्रिया से जोड़ता है और जीवन के लक्ष्यों को पहचानने, पाने और कार्यान्वित करने का अभ्यास कराता है।

गंगा तट तक पैदल चलकर आना और दिन में तीन बार स्नान करना न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारता है, बल्कि हमें प्रकृति से जोड़कर आध्यात्मिक ऊर्जा भी प्रदान करता है।

कल्पवास का 4H सूत्र
कल्पवास में "4H फॉर्मूला" पूरी तरह लागू होता है, जो कि जीवन प्रबंधन के लिए आवश्यक माना जाता है।

Head (मस्तिष्क) – व्यक्ति के मस्तिष्क को सामाजिक शिक्षा के माध्यम से भावनात्मक रूप से सशक्त बनाया जाता है।
Hand (हाथ) – हमारे हाथ सहयोग, समर्थन, संगठन और सेवा से जुड़े होते हैं। कल्पवास में हम अपने हाथों से अपना भोजन पकाते हैं, दान देते हैं, प्रकृति को सुंदर बनाते हैं और दूसरों की सहायता करते हैं।
Heart (हृदय) – कल्पवास हमें संवेदनशील और सहनशील बनाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, इसका सबसे बड़ा प्रभाव हमारे हृदय पर पड़ता है।
Habit (आदतें) – कल्पवास के 21 नियमों में यह बताया गया है कि कैसे हम अपनी आदतों को सुधार सकते हैं और जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
पुराणों में कल्पवास का उल्लेख
हमारे पुराणों में कल्पवास को एक स्वस्थ और सफल जीवन के लिए आवश्यक बताया गया है। कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति बिना कल्पवास के संभव नहीं है।

महाभारत के वनपर्व में भी कल्पवास का उल्लेख मिलता है—

गंगायमुनयोर्मध्ये स्नाति यः संगमे नरः।
दशाश्वमेघमाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत।।

मत्स्य पुराण के अनुसार, कल्पवास तब सफल होता है जब संगम के तट पर रहकर वेदों का अध्ययन और ध्यान किया जाए। पद्म पुराण में कहा गया है कि कल्पवासी को संयमी, शांतचित्त और जितेन्द्रिय होना चाहिए।

पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय द्वारा कल्पवास के 21 नियम बताए गए हैं, जिन्हें हर कल्पवासी को पालन करना अनिवार्य होता है।

समाज सुधार की वैज्ञानिक पहल
कल्पवास सामाजिक बंधुत्व, सेवा, समझ, उत्सव और समाज सुधार का भी महत्वपूर्ण माध्यम है। हमारे पूर्वजों ने इसे बहुत वैज्ञानिक रूप से तैयार किया है।

कल्पवास में यज्ञ और भोजन बनाने के धुएँ को मिलते हुए देखने से उत्पन्न होने वाली आध्यात्मिक आभा को महसूस करने का प्रयास करें। तब आप कल्पवास के अनूठे उद्देश्य को और भी बेहतर ढंग से समझ पाएँगे।

कल्पवास वैदिक काल की प्राकृतिक वन संस्कृति का आधुनिक रूप है। जब संगम तट पर वन हुआ करता था, तब ऋषि-मुनि और गृहस्थजन माघ मास में एकत्रित होकर स्नान, ध्यान और दान के माध्यम से अपने तन और मन का उत्थान करते थे।

हर कुंभ मेले में लाखों-करोड़ों भारतीय और विदेशी भक्त कल्पवास करने के लिए प्रयागराज पहुंचते हैं। उनकी आस्था, आत्मशुद्धि और मोक्ष की आकांक्षा इस परंपरा को जीवंत बनाए रखती है।

बाबा तुलसीदास ने रामचरितमानस में तीर्थराज प्रयाग की महिमा इस प्रकार गाई है—

माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।
देव-दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ़ मीडिया स्टडीज़ में पाठ्यक्रम समन्वयक के रूप में कार्यरत हैं। उनकी 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पुस्तक "भारत में कुंभ" को वर्ष 2023 में भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा राजभाषा गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।)

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