भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक विजय कुचरू का मानना है कि कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली इम्यून सिस्टम की रणनीति एक दिन अल्जाइमर के मरीजों के लिए भी मददगार साबित हो सकती है।
जम्मू-कश्मीर के बारामूला में जन्मे कुचरू अब हार्वर्ड मेडिकल स्कूल और ब्रिघम एंड वीमेंस हॉस्पिटल में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर हैं। साथ ही बोस्टन में एवरग्रांडे सेंटर फॉर इम्युनोलॉजिक डिजीज के निदेशक भी हैं। हार्वर्ड गजट से बातचीत में उन्होंने अपनी टीम के नए शोध के बारे में बताया, जो नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है। यह शोध देर से होने वाले अल्जाइमर में TIM-3 नामक अणु की भूमिका पर केंद्रित है।
कुचरू के मुताबिक, '90-95 प्रतिशत अल्जाइमर के मामले बुढ़ापे में सामने आते हैं। हमने जिस TIM-3 अणु का अध्ययन किया, उसका संबंध बुढ़ापे में होने वाले अल्जाइमर से जुड़ा है।'
TIM-3 हमारे इम्यून सिस्टम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह एक तरह का चेकपॉइंट है जो इम्यून सेल्स को शरीर के अपने ऊतकों पर हमला करने से रोकता है। कुचरू बताते हैं कि जब इम्यून सिस्टम सक्रिय होता है, तो यह चेकपॉइंट उसे नियंत्रित करता है। संक्रमण से लड़ने में यह बेहद जरूरी है, लेकिन कैंसर के मामले में यह इम्यून सिस्टम को कैंसर सेल्स पर हमला करने से रोक देता है।
शोध में एक चौंकाने वाली बात सामने आई कि अल्जाइमर के मरीजों के दिमाग में भी कुछ ऐसा ही होता है। दिमाग की इम्यून कोशिकाएं माइक्रोग्लिया में TIM-3 की मात्रा ज्यादा होती है, जो अल्जाइमर से जुड़ी प्लाक को साफ नहीं होने देती।
कुचरू बताते हैं कि माइक्रोग्लिया दिमाग की इम्यून कोशिकाएं हैं जो यादों को स्टोर करने में मदद करती हैं। लेकिन एक बार याद बन जाने के बाद TIM-3 बढ़ जाता है और माइक्रोग्लिया की गतिविधि रुक जाती है।
उन्होंने कहा, 'यह अच्छा है क्योंकि आप अपनी यादों को मिटाना नहीं चाहते, लेकिन बुढ़ापे में जब दिमाग में कचरा जमा होता है तो यह बुरा है क्योंकि वह साफ नहीं हो पाता। इस कचरे के जमा होने से प्लाक बनती है जो अल्जाइमर का कारण बनती है।' टीम ने चूहों पर प्रयोग किया। उनमें से TIM-3 जीन को हटा दिया गया। इससे प्लाक कम हुई और चूहों की याददाश्त में सुधार दिखा।
भविष्य में इंसानों के लिए इलाज कैसा होगा, इस बारे में कुचरू कहते हैं कि एंटी-TIM-3 एंटीबॉडी या छोटे अणु का इस्तेमाल किया जा सकता है। चूंकि TIM-3 सिर्फ माइक्रोग्लिया में पाया जाता है, इसलिए इससे दूसरे साइड इफेक्ट नहीं होंगे। यह काम पांच साल में पूरा हुआ। कुचरू ने इसका श्रेय अपनी पूरी टीम को दिया। अब टीम इंसानों पर इस इलाज को आजमाने की तैयारी कर रही है।
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