राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रेऽऽऽ … आहा, राम निरंजन…
अमीन चाचा झूम-झूम कर गा रहे थे। आस-पास खड़े लोग उनका मजाक उड़ाते हुए कह रहे थे- 'ई अमीन साहेब नू, कहीं आपन नाच-गान शुरू कर देनी।'
हमारी कॉलोनी कमाल की थी। रंग-बिरंगी, जैसे किसी त्योहार का माहौल। हर तरह के लोग, हर तरह के रंग। फूल, फल, जानवर, सब कुछ था। हिंदू-मुस्लिम, छोटे-बड़े, सुन्दर-बदसूरत सब मिल-जुल के रहते थे। एक-दूसरे से खूब हंसी ठिठोली करते, हंसी-मजाक में दिन निकल जाता था।
अमीन चाचा अहीर थे, मगर जनेऊ पहनते थे। पूजा-पाठ करते, धार्मिक किताबें पढ़ते और खाने से पहले भगवान को भोग जरूर लगाते। एकादशी हो या कोई और व्रत, कभी नहीं छोड़ते थे। कई बार लोग मजाक में कहते, 'अरे बाबा, आप तो साधू बनने वाले हैं'।
अमीन चाचा, कहानियों का खजाना थे और मैं उनकी फेवरेट। वो एक भजन गा रहे थे, झूम रहे थे। हम बच्चे भी अपना खेल छोड़कर, उनके नाटक में शामिल हो गए। जब उन्होंने गाना खत्म किया, मैंने उनसे पूछा, 'चाचा, इसका मतलब क्या है?' हंसते हुए बोले, 'जाओ, जाओ, खेलो प्रियंका, रात को आराम से समझाऊंगा।'
हर रात खाना खाने के बाद अमीन चाचा 100 कदम चलते थे। हम कॉलोनी के बच्चे को भी चलने को कहते थे। चलते-चलते वो कहानियां सुनाते, भजन गाते, कुछ पढ़ाई की बातें करते, दुनिया की खबरें बताते।
अब बात उस भजन की, जिसको सुनकर पूरी कॉलोनी इकट्ठा हो गई थी। ये भजन उनको एक वाकये की वजह से गाना पड़ा था। क्या हुआ था?
हुआ यूं था कि, हमारी कॉलोनी में एक घर था, उसकी सीढ़ियां टूट गई थीं। सीढ़ी क्या, घर में घुसने को तीन-चार ईंट जोड़ी पायदान। उसमें से एक ईंट में से सीमेंट हट गया था और साफ दिख रहा था उस पर 'राम' नाम लिखा हुआ। अब परिवार वालों की मुश्किल कि राम के नाम पर पैर धर के उतरे कैसे ? हालांकि इसी पायदान पर पैर रगड़ -रगड़ वे बरसों उतरते -चढ़ते रहें थे। तय हुआ की इन चुन्नू -मुन्नू सीढ़ियों को फानकर घर में घुसा जाए। अब सरकारी मकान की मरम्मत अपने पैसा से कौन करवाए ? अगले साल फंड आएगा तब बन ही जाएगा।
तो घर वाले, 'राम' नाम को पार करते हुए, घर में घुसते रहे। कॉलोनी के बच्चों के लिए ये एक खेल बन गया था। वो बहाने ढूंढते रहते थे, उस घर में जाने के लिए। ऐसे में एक दिन उस परिवार की मालकिन का पैर इस कूद-फान के फेर में मचक गया। तब वक्त था कि कोई छींक भी दे तो मोहल्ला उमड़ पड़ता देखने और मदद करने को।
ऐसे में मिलने, हाल -चाल जानने वाले तबियत से इतर कुछ ईंट तो कुछ राम नाम का भेद मिटाने का उपाय भी बताते जाते। कुछ लोगों ने कहा- 'अरे महाराज, तबतक ईंटे को मिट्टी से लीप दीजिए।' कुछ ने कहा- 'यह ईंट ही उखड़वा दीजिए और सब बराबर कर दीजिए।' कुछ ने कहा- 'भगवान के नाम पर पैर रख के उतरते थे, ऐसा तो होना हो था।' किसी ने कहा- 'भगवान कहां नहीं, फिर कितना ईंट निकालेंगे ? यह सब वहम है, विश्वास रखिए।' किसी ने कहा- 'अब तक तो पैर रख कर उतर ही रहे थे, क्या अहित हुआ ? भगवान सब माफ कर देते हैं। ज्यादा सोचिए मत।'
यही सब हो-हल्ला को सुनकर अमीन चाचा अपने रौ में बह निकले। एक किस्सा सबको सुनाया और कबीर का यह भजन झूम-झूम कर गाने लगे थे।
उनका किस्सा यह था- अपने काम के सिलसिले में, नहर की नाप-जोख में उसके किनारे की कच्ची सड़क की नापी कर रहे थे। नहर के किनारे नेटूआ (एक अति पिछड़ा समुदाय ) सब झोपड़ी बना लिया था। ईंटाकरण पर ही बकरी-बासन सब होता था उनका। एक महिला उसी सड़क पर गोबर के उपले पाथ रही थी। अमीन साहब ने देखा तो हंसते हुए कहा- 'का हो, गणेश जी के माथे गोबर पाथ देलू …' उस ईंटाकरण वाली सड़क के ईट पर गणेश गुदा था। उस भोली महिला ने कहा- 'का करीं साहेब, इहे भगवान के मर्जी त हमार का दोष ?'
खैर, रात के भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने भजन का अर्थ बताया- प्रियंका, कबीर साहब कहते हैं- 'यह समस्त संसार माया का ही पसारा है। माया रहित राम सारे जगत से परे, भिन्न है।' राम के नाम पर लात रखने से पाप लग जाएगा बताओ ? और राम को उखाड़ फेकने पर या उसपर सीमेंट पोतने से पाप नहीं लगेगा? बच्चा, राम कहां नहीं ? सब मन का माया है… माया।'
बीते दिनों मैंने इतना राम का नाम सुना जितना कभी नहीं सुना होगा। मुझे अमीन चाचा याद आए, याद आए कुमार गंधर्व, कबीर, कौशल्या के राम, माणिक वर्मा और शर्मा बंधु के गाए भजन।
अब देखिये ना, कहां मैं आपसे अपने जीवन का एक किस्सा साझा कर रही थी और इसी भजन की अगली लाइन ध्यान में आती, 'अंजन विद्या, पाठ-पुराण, अंजन घोकतकत हि ग्यान रे!' मतलब- 'माया ही विद्या, पाठ और पुराण है। यह व्यर्थ का वाचिक ज्ञान भी माया ही है।' और इसी माया और व्यर्थ का वाचिक ज्ञान के मोह में फंसी तपस्या की नजर अपनी सीढ़ियों पर जाती है। प्रकाश का यह रूप देख कर माया बचपन के किस्से तक घुमा लाई।
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