2024 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में एक बात साफ तौर पर उभर कर सामने आई है। भारतीय-अमेरिकी वोटर्स का महत्व पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है। 40 लाख से अधिक की आबादी वाले भारतीय-अमेरिकी अब एक अहम वोट बैंक बन गए हैं। खास तौर पर उन राज्यों में जहां उनकी अच्छी खासी तादाद चुनाव नतीजों को बदल सकती है। इस बात को समझते हुए, उन तक पहुंचने की कोशिशें बढ़ी हैं। 'फाउंडेशन फॉर इंडिया एंड इंडियन डायस्पोरा स्टडीज' (FIIDS) जैसी संस्थाएं इसमें अहम भूमिका निभा रही हैं। उन्होंने वोटर रजिस्ट्रेशन और वोटिंग के लिए जागरूकता अभियान चलाए हैं, जिसका पूरे समुदाय पर असर हुआ है।
Trump 1.0 : ट्रम्प के पहले कार्यकाल ने अमेरिका की विदेश नीति में, खासकर दक्षिण एशिया और चीन के साथ, जबरदस्त बदलाव ला दिए। ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच गर्मजोशी साफ दिखी, जिसकी चरम सीमा ह्यूस्टन में हुए 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम में देखने को मिली। ये महज दिखावा नहीं था। इससे दोनों देशों के बीच गहरे संबंधों का पता चलता है। खासकर चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में।
बाइडेन अप्रोच : राष्ट्रपति बाइडेन ने, हालांकि भारत के यूक्रेन युद्ध पर तटस्थ रवैये से शुरुआत में कुछ तनाव पैदा हुआ, फिर भी ट्रम्प की कई नीतियों को आगे बढ़ाया। बाइडेन ने 2022 में मोदी को ऐतिहासिक स्टेट विजिट का दर्जा दिया, जिससे ICET (क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी पर पहल) और IMEC (इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप कॉरिडोर) साझेदारियों को और मजबूत किया गया। इन पहलों से भारत के सामरिक महत्व को लेकर दोनों दलों की सहमति दिखती है।
रिश्तों में मतभेद : हालांकि, बांग्लादेश और कनाडा में अल्पसंख्यकों के साथ बाइडेन प्रशासन के बर्ताव को लेकर चिंताएं भी थीं। इस मुद्दे पर भारतीय-अमेरिकी मतदाता विभाजित दिखे। कई बड़े वोटर्स अमेरिका-भारत के रिश्तों और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों जैसे बांग्लादेश और कनाडा में हिंदुओं की सुरक्षा और अमेरिका में भारतीय मंदिरों और वाणिज्य दूतावासों पर हमलों को ज्यादा महत्व देते हैं। दूसरी तरफ, यहां पैदा हुए और पले-बढ़े युवा भारतीय-अमेरिकी उदारवादी घरेलू नीतियों की तरफ झुकाव रखते हैं और द्विपक्षीय संबंधों को कम महत्व देते हैं।
ट्रम्प 2.0 : राष्ट्रपति चुनाव जीतने वाले ट्रम्प द्वारा हाल ही में की गई नियुक्तियों से भारतीय-अमेरिकी समुदाय के कुछ वर्गों में फिर से उत्साह देखने को मिल रहा है। विवेक रामास्वामी, तुलसी गबार्ड, माइक वाल्ट्ज (इंडिया कॉकस के सह-अध्यक्ष) और भावी विदेश मंत्री माइक रुबियो जैसे नामों से भारत समर्थक नीतियों की ओर झुकाव का संकेत मिलता है। ट्रम्प के नेतृत्व में, हमें हिंद-प्रशांत और दक्षिण एशिया के बीच गहरे तालमेल की उम्मीद करनी चाहिए।
ट्रम्प की आक्रामक कूटनीति, जो अक्सर नौकरशाही चैनलों को दरकिनार कर देती है, प्रधानमंत्री मोदी जैसे नेताओं के साथ सीधे जुड़ाव को बढ़ावा दे सकती है। ट्रम्प कश्मीर पर भारत के रुख का समर्थन करेंगे और लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में चीन के अतिक्रमण की आलोचना करेंगे। राष्ट्रपति बाइडेन के संयमित, विदेश मंत्रालय के नेतृत्व वाले तरीके के विपरीत, ट्रम्प की सक्रिय शैली से विवादित मुद्दों पर त्वरित निर्णय लिए जा सकते हैं।
चुनौतियां बरकरार : भले ही संभावनाएं अच्छी लग रही हों, लेकिन चुनौतियां भी बरकरार हैं। व्यापारिक शुल्क एक अड़चन बन सकता है। भारत को इन जटिलताओं से निपटने के लिए एक लेन-देन के आधार पर काम करने की रणनीति अपनानी होगी, ताकि दोनों पक्षों को फायदा हो। साथ ही, ट्रम्प प्रशासन में धार्मिक कट्टरपंथियों के प्रभाव से भारत के धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों और FCRA (विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम) के कार्यान्वयन को चुनौती मिल सकती है, जिनकी अमेरिका स्थित धार्मिक कट्टरपंथी समूहों ने आलोचना की है।
टेक्नोलॉजी और कानूनी इमिग्रेशन के मामले में, कुछ रिपब्लिकन नेताओं द्वारा हाल ही में H1B वीजा के खिलाफ दिए गए बयानों से चिंता है। इससे अमेरिका के तकनीकी, इनोवेशन और उद्यमिता क्षेत्र में कुशल भारतीय पेशेवरों के योगदान को नकारने का खतरा है। FIIDS जैसे वकालत समूहों को H1B सुधार, ग्रीन कार्ड बैकलॉग और लंबे समय से वीजा धारकों के बच्चों के वीजा की समय-सीमा समाप्त होने जैसे मुद्दों पर काम करने की जरूरत है।
इस तेजी से बदलते माहौल में, FIIDS जैसी संस्थाओं का महत्व और बढ़ गया है। अपने सालाना सम्मेलनों के ज़रिए FIIDS ने सैकड़ों भारतीय-अमेरिकी प्रतिनिधियों को कैपिटल हिल ले जाकर लगभग 100 सांसदों के साथ बातचीत करवाई है। आगे बढ़ते हुए FIIDS, इन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगी:
ट्रम्प के पहले कार्यकाल और बाइडेन के राष्ट्रपति काल के दौरान बनाई गई नीतिगत नींव मजबूत है, लेकिन आगे काफी हद तक निरंतर एडवोकेसी और सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करता है। एक भारतीय-अमेरिकी नीति रणनीतिकार के रूप में मैं आशावादी लेकिन सावधान हूं। मजबूत संबंधों की उम्मीद है लेकिन आने वाली चुनौतियों से भी वाकिफ हूं। साथ मिलकर, समुदाय के प्रयासों से, हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारतीय-अमेरिकी एक मजबूत और अधिक समावेशी भविष्य के लिए नेरेटिव को आकार देते रहें।
(लेखक : खांडेराव कंड। इस लेख में दिए गए विचार और राय लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि ये 'न्यू इंडिया अब्रॉड' की आधिकारिक नीति को दर्शाते हों।)
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