l कैसे सजी 'शोले'... सिप्पी ने कुछ राज खोले

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कैसे सजी 'शोले'... सिप्पी ने कुछ राज खोले

जितनी दिलचस्प फिल्म शोले है उतनी ही इसे बनाने की कहानी भी है। आज के अंक में हम आपको बताते हैं कि ये फिल्म कैसे महाने बनी। इसके निर्देशक रमेश सिप्पी के हवाले से...

शोले के सितारे... / NIA

कहा जाता है कि कुछ फिल्में इतनी बेहतरीन तरीके से बनाई जाती हैं कि उन्हें दोबारा नहीं बनाया जा सकता। ऐसी ही एक फिल्म थी निर्देशक रमेश सिप्पी की शोले। एक शानदार और सदाबहार कृति जो आज भी एक कल्ट क्लासिक बनी हुई है। जब यह फिल्म 1975 में रिलीज हुई थी तो इसने ओपनिंग वीकेंड पर किसी का ध्यान नहीं खींचा। लेकिन सोमवार के बाद दर्शक फिल्म देखने के लिए सिनेमाघरों में उमड़ पड़े। लोगों ने इसे खूब सराहा और बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने जबरदस्त कमाई की। शोले को आज भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में से एक माना जाता है। आइए देखें कि 70 के दशक में प्रतिष्ठित फिल्म को बनाने के लिए सिप्पी को क्या-क्या करना पड़ा...

70 और 80 के दशक की सफल फिल्मों को जुबली फिल्में कहा जाता था। शोले भारत की पहली ऐसी फिल्म थी जिसने 100 से ज्यादा थिएटरों में सिल्वर जुबली मनाई थी। नए जमाने की प्रेम कहानियों से बहुत पहले, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ने मराठा मंदिर थिएटर में लगातार चल कर इतिहास रच दिया था। यह शोले ही थी जिसने मुंबई (तब बॉम्बे) के मिनर्वा में लगातार पाच साल तक दिखाए जाने का रिकॉर्ड बनाया था।

शोले को रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित और उनके पिता जीपी सिप्पी द्वारा निर्मित हिट-जोड़ी सलीम-जावेद द्वारा लिखित, एक्शन-एडवेंचर फिल्म के रूप में प्रचारित किया गया था। यह फिल्म दो अपराधियों, वीरू (धर्मेंद्र) और जय (अमिताभ बच्चन) के बारे में है, जिन्हें एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी (संजीव कुमार) क्रूर डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए काम पर रखता है। हेमा मालिनी और जया भादुड़ी भी इस फिल्म में वीरू और जय, बसंती और राधा की प्रेमिकाओं के रूप में अभिनय करती हैं। संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था।

ऐसा कहा जाता है कि निर्देशक रमेश सिप्पी ने कर्नाटक के बेंगलुरु के पास एक कस्बे रामनगर के चट्टानी इलाके में एक गांव का सेट बनाया था। शूटिंग के बाद सेट को नहीं तोड़ा गया क्योंकि ग्रामीणों ने उनसे इसे वैसे ही छोड़ने का अनुरोध किया और बाद में उस जगह को सिप्पी नगर के नाम से जाना जाने लगा। यह अब एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह फिल्म सोवियत संघ में भी एक विदेशी सफलता थी। इसे ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट के 2002 के 'सर्वकालिक शीर्ष 10 भारतीय फिल्मों' के सर्वेक्षण में पहला स्थान दिया गया था।

निर्देशक रमेश सिप्पी ने खुलासा किया था कि लेखक जोड़ी सलीम खान और जावेद अख्तर ने 1973 में फिल्म निर्माता को चार लाइन की कहानी सुनाई थी। कहानी सिप्पी को पसंद आई और उन्होंने फिल्म बनाने का फैसला किया। फिल्म का मूल विचार एक सेना अधिकारी से जुड़ा था, जिसने अपने परिवार की हत्या का बदला लेने के लिए दो पूर्व सैनिकों को काम पर रखने का फैसला किया। बाद में सेना अधिकारी को एक पुलिसकर्मी में बदल दिया गया क्योंकि सिप्पी को लगा कि सेना की गतिविधियों को दर्शाने वाले दृश्यों को शूट करने की अनुमति मिलना मुश्किल होगा।

निर्देशक ने बताया कि हमने गब्बर सिंह के किरदार पर काम किया। यह असल जिंदगी के डाकू गब्बर सिंह गुज्जर पर आधारित था, जिसने 1950 के दशक में ग्वालियर के आस-पास के गांवों में लूटपाट की थी। हमने इस किरदार के लिए डैनी डेन्जोंगपा से संपर्क किया लेकिन वे अफगानिस्तान में फिरोज खान की 'धर्मात्मा' की शूटिंग में व्यस्त थे और उनके पास समय नहीं था।

अभिनेता अमिताभ बच्चन और संजीव कुमार भी गब्बर का किरदार निभाने के लिए उत्सुक थे और उन्होंने मुझसे इस किरदार के लिए विचार करने के लिए भी कहा। लेकिन मैंने अमजद खान को एक नाटक में देखा और उनमें कुछ ऐसा था जो मुझे पसंद आया, इसलिए हमने उनसे संपर्क किया। मैं एक आम डाकू का किरदार नहीं चाहता था, इसलिए हमने फिल्म में उनका लुक बदल दिया। अमजद खान को पता था कि उन्हें जीवन भर का एक बेहतरीन मौका मिला है, इसलिए उन्होंने सेट पर अच्छी तरह से तैयार होकर जाने का फैसला किया। उनकी तैयारी के लिए उन्होंने अभिशप्त चंबल नामक किताब पढ़ी, जिसमें चंबल में डकैतों के कारनामों के बारे में बताया गया था।

गब्बर ही एकमात्र ऐसा किरदार नहीं था जिसके लिए कास्टिंग में काफी समय लगा। कहा जाता है कि सिप्पी चाहते थे कि दिलीप कुमार ठाकुर बलदेव सिंह की भूमिका निभाएं लेकिन दिलीप कुमार ने मना कर दिया। प्राण को भी ठाकुर की भूमिका निभाने के लिए चुना गया था। धर्मेंद्र को लगा कि वे ठाकुर की भूमिका के साथ न्याय कर पाएंगे लेकिन सिप्पी को लगता था कि संजीव कुमार ही सही विकल्प हैं। इसलिए धर्मेंद्र को रोकने का एकमात्र तरीका थोड़ी राजनीति करना था और रमेश सिप्पी ने ठीक वही किया।

फिल्म निर्माता ने खुलासा किया- धर्मेंद्र इस बात पर बहुत जोर दे रहे थे कि उन्हें ही ठाकुर की भूमिका निभानी चाहिए लेकिन साथ ही वह खूबसूरत हेमा मालिनी को भी लुभाने की कोशिश कर रहे थे, जिन्हें बसंती, तांगेवाली की भूमिका निभाने के लिए साइन किया गया था। धर्मेंद्र उनसे बेहद प्यार करते थे और हाल ही में (तब) उन्होंने उनके साथ सीता और गीता में काम किया था। दूसरी ओर सीता और गीता में उनके सह-अभिनेता संजीव कुमार भी हेमा मालिनी में रुचि रखते थे। मैंने धर्मेंद्र से कहा कि अगर संजीव कुमार को वीरू के रूप में लिया जाता है तो वह हेमा मालिनी के करीब आएंगे। धर्मेंद्र ने इसके बारे में सोचा और आखिरकार वीरू की भूमिका निभाने के लिए हामी भर दी।

सिप्पी बताते हैं कि शुरुआत में हेमा मालिनी भी इस भूमिका को निभाने के लिए अनिच्छुक थीं लेकिन मैंने उनसे कहा कि यह भूमिका बहुत दमदार है और इससे उन्हें बहुत सफलता मिलेगी, तो वह मान गईं। वह पहले ही मेरे साथ सीता और गीता और अंदाज कर चुकी थीं। मैंने जय की भूमिका निभाने के लिए शत्रुघ्न सिन्हा से भी संपर्क किया था। लेकिन अमिताभ बच्चन ने धर्मेंद्र से व्यक्तिगत रूप से उनके लिए सिफारिश कर रखी थी।

बहरहाल, कुनबा जुड़ चुका था और शूटिंग शुरू हुई। कहा जाता है कि धर्मेंद्र अक्सर शॉट खराब करने के लिए लाइट बॉयज को पैसे देते थे ताकि कई रीटेक हों और  उन्हे 'बसंती' के साथ अधिक समय बिताने का मौका मिले। उस समय धर्मेंद्र हेमा के प्यार नें डूबे थे। खैर, फिल्म की रिलीज के पांच साल बाद इस जोड़े ने शादी कर ली।

अमिताभ बच्चन के जन्मदिन से कुछ दिन पहले 3 अक्टूबर 1973 को फिल्मांकन शुरू हुआ। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तब तक बच्चन और जया भादुड़ी शादी कर चुके थे। 

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