स्वीडन के थिंक टैंक स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) ने इस साल मार्च में एक अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत 2019-23 की अवधि में दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश था।
गौर करने की बात ये है कि ये स्थिति तब है, जब भारत में 1958 से स्थापित रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) लगातार अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है। अपनी स्थापना के बाद से डीआरडीओ की लैब की संख्या 50 तक पहुंच चुकी है जिसका उद्देश्य देश की रक्षा जरूरतों में बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भरता प्राप्त करना है।
दुनिया में हथियार लॉबी काफी मजबूत है। उसे स्वदेशी विकास से संतुलन को अपने पक्ष में झुकाना आता है। देश में आई तमाम सरकारों को अपनी खुद की हथियार प्रणालियों के विकास, निर्माण एवं संचालन के साथ साथ भारतीय सशस्त्र बलों को युद्ध के मैदान में बढ़त दिलाने के लिए सर्वोत्तम उत्पाद प्रदान करने के बीच संतुलन बनाने के लिए जूझना पड़ा है।
यह संतुलन एक नाजुक कार्य है लेकिन आधी से अधिक सदी के दौरान किसी ने भी सैन्य हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर में घरेलू विशेषज्ञता हासिल करने में डीआरडीओ की केंद्रीय भूमिका पर सवाल नहीं उठाया। इसी भरोसे की वजह से भारत ने देसी मिसाइलों से लेकर लड़ाकू विमान, पानी के नीचे काम करने वाले नौसेनिक हथियारों से लेकर युद्धक टैंकों तक दर्जनों प्रमुख प्रणालियों को बनते देखा है। ये उपलब्धियां इसलिए भी खास हैं क्योंकि इन्हें वैश्विक विक्रेताओं द्वारा प्रमुख उपकरणों व सामग्रियों को देने से इनकार करने के बावजूद हासिल किया गया है।
इसे देखते हुए आश्चर्य तब हुआ, जब रक्षा मंत्रालय ने अगस्त 2023 में DRDO को रीडिजाइन करने के लिए भारत सरकार के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के विजयराघवन की अध्यक्षता में एक समिति बना दी। ये इस तरह की पहली समिति नहीं है। लेकिन हैरान इस बात पर है कि 2020 में रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति ने DRDO में वर्कफोर्स और बजट की कमी को रेखांकित करते हुए कथित तौर पर इसके पुनर्गठन की सिफारिश कर दी।
डीआरडीओ का प्रतिनिधित्व नहीं
2023 की गठित इस समिति पर जरा गौर कीजिए। इसके नौ सदस्यों में तीनों सैन्य विंग के प्रमुख, रक्षा विश्लेषक, निजी क्षेत्र के प्रतिनिधि, कुछ शिक्षाविद, इसरो के एक वैज्ञानिक और एक वित्त विशेषज्ञ शामिल थे। लेकिन हैरानी की बात ये है कि इसमें डीआरडीओ से कोई भी नहीं था। इस पैनल ने जनवरी 2024 में अपनी रिपोर्ट पेश की। ये रिपोर्ट आधिकारिक रूप सार्वजनिक नहीं की गई। छिपते छिपाते मीडिया में कुछ अंश लीक हुए।
अपुष्ट सूत्रों के हवाले से आई जानकारियों में दावा किया गया था कि समिति ने डीआरडीओ को एक तरह से खत्म करने का सुझाव दिया था। डीआरडीओ की लगभग 50 प्रयोगशालाओं में 30,000 लोग कार्यरत हैं। समिति ने इन लैब की संख्या घटाकर केवल 10 करने का सुझाव दिया। इतना ही नहीं, समिति का कथित तौर पर सुझाव था कि डीआरडीओ को सिर्फ रिसर्च एवं विकास पर फोकस करना चाहिए और प्रोडक्शन का काम नहीं करना चाहिए। यहां तक कि प्रोटोटाइप भी नहीं बनाने चाहिए। प्रोडक्शन का काम प्राइवेट सेक्टर और पब्लिक सेक्टर की यूनिटों को सौंपा जाना चाहिए।
'रीडिजाइन से पहले पूरी तरह सीखें'
डीआरडीओ से इस तरह छेड़छाड़ हर किसी के गले नहीं उतर रही है। डीआरडीओ के दो पूर्व सम्मानित अधिकारी डॉ केजी नारायणन और डॉ वासुदेव के अत्रे ने इसे लेकर खुलकर अपनी चिंता जताई है। पिछले हफ्ते बेंगलुरु से प्रकाशित डेक्कन हेराल्ड में एक लेख लिखा गया था। टाइटल था- 'डीआरडीओ को रीडिजाइन करने से पहले इसे पूरी तरह जान लें'।
इस लेख में लिखा गया था कि डीआरडीओ ने पिछले तीन दशकों में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। उसके वास्तविक ट्रैक रिकॉर्ड पर गौर किए बिना सार्वजनिक स्थानों पर उसकी आलोचनाएं किसी को हैरान नहीं करतीं। हैरानी की बात ये है कि पिछले पांच दशकों में डीआरडीओ और रक्षा उत्पादन विभाग की औसत दर्जे की उपलब्धियों को लापरवाही से 'कुछ उपलब्धियां' बताकर दरकिनार कर दिया गया है। डीआरडीओ की तरफ से समिति के सामने दी गई प्रस्तुति को भी एक तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। ऐसे में ये विश्वास करना मुश्किल है कि ऐसी प्रतिकूल नजरिए के साथ डीआरडीओ की कोई अच्छी समीक्षा कर सकता है। निहितार्थ एक ही था कि कोई देश एक ही समय में हथियारों का शीर्ष आयातक और स्वदेशी उत्पादनकर्ता कैसे बन सकता है?
दिग्गजों की प्रतिक्रिया
इस लेख को लेकर रक्षा अनुसंधान एवं विकास समुदाय में अभूतपूर्व प्रतिक्रिया हुई। अब तक करीब 16 लोगों के डेक्कन हेराल्ड के लेख के समर्थन में बयान आ चुके हैं। इनमें समिति की रिपोर्ट पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया है।
प्रतिष्ठित वैज्ञानिक एवं डीआरडीओ के पूर्व महानिदेशक डॉ भुजंगा राव वेपाकोम्मा का कहना था कि मैंने अक्सर देखा है कि हथियार सप्लायर और भारतीय कारोबारियों जैसी तमाम लॉबी के दवाब में, निहित स्वार्थों की वजह से गलत तथ्यों का हवाला देकर डीआरडीओ की आलोचना की जाती है।
रवि कुमार गुप्ता, पूर्व निदेशक पब्लिक इंटरफेस, डीआरडीओ मुख्यालय का कहना था कि सफाई और सुधार के नाम पर ऐसा न हो कि टब के पानी के साथ बच्चे को भी बाहर फेंक दिया जाए।
डॉ. जे. नारायणदास, जो रिटायर्ड मुख्य नियंत्रक आरएंडडी (नौसेना प्रणाली एवं सामग्री) ने कहा कि समिति में न तो डीआरडीओ की गहन समझ वाले सदस्य थे और न ही इसके बारे में जानने के लिए पर्याप्त समय खर्च दिया गया।
नौसेना के वरिष्ठ वैज्ञानिक एचआरएस शास्त्री का कहना था कि अगर डीआरडीओ को खत्म कर दिया गया तो हो सकता है कि आने वाले समय में डीआरडीओ द्वारा एक बार इस्तेमाल द्वारा तैयार सफल तकनीकों को भी खारिज कर दिया जाए।
वी. चंदर, नौसेना भौतिक एवं समुद्र विज्ञान प्रयोगशाला के पूर्व निदेशक ने समिति के सदस्यों के चयन पर सवाल उठाते हुए कहा कि दो हितधारक तीसरे हितधारक की 'कमियों का पता लगाने और सुधारने' का काम कैसे कर सकते हैं? ऐसी क्या सीक्रेट वजह थी कि समिति में डीआरडीओ का कोई सदस्य नहीं रखा गया?
समिति की रिपोर्ट को लेकर ऐसे प्रतिष्ठित हस्तियों की प्रतिक्रिया से सवाल उठता है कि क्या इसका कोई प्रभाव पड़ेगा? या फिर रिपोर्ट को लागू कर दिया जाएगा? चूंकि रिपोर्ट को अभी तक आधिकारिक तौर पर जारी नहीं किया गया है, ऐसे में सरकार के पास कुछ मौका है। वह डीआरडीओ से कुछ सीख ले सकती है, या फिर इससे भी बदतर कर सकती है। देखना होगा कि सरकार क्या कदम उठाती है।
(लेखक IndiaTechOnline.com के संपादक हैं और ये उनके निजी विचार हैं।
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