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एक धागे में पिरोया भारत: त्योहारों, मिट्टी के घड़ों और मंदिरों की अनोखी कहानी

भारत की प्राचीन सभ्यता आज भी जीवंत है। इसकी एकता हजारों साल पुरानी परंपराओं, त्योहारों और नारी शक्ति के जादू में छिपी है। एक साधारण मिट्टी के घड़े से लेकर मंदिरों में पूजा तक, भारत की विविधता में इसकी अद्भुत एकता झलकती है।

प्रतीकात्मक तस्वीर / Richa

क्या आप जानते हैं कि 16वीं सदी तक दुनिया के कई हिस्सों में वसंत विषुव (Vernal Equinox) को नए साल की शुरुआत के तौर पर मनाया जाता था। हालांकि, गुलामी के दौर में भारत में ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाने के बाद नया साल 1 जनवरी को मनाया जाने लगा। लेकिन वसंत ऋतु हमेशा से ही नई शुरुआत और नए जीवन का प्रतीक रहा है और आज भी है।

सभ्यता का जादू: एक भारत के धागों से बुनी कहानी

भारत की सभ्यता को जोड़ने वाले अदृश्य धागों का पता लगाना एक अनोखा जादू है। यह खोज टुकड़ों में सामने आती है - त्योहारों के बीच एक अनपेक्षित जुड़ाव, प्राचीन परंपराओं के बारे में अचानक अनुभूति, एक 'आहा' का पल जब कोई अलग-थलग दिखने वाला अनुष्ठान देश के किसी दूसरे कोने में प्रतिबिंबित होता है। ये प्रेरणा के पल जुगनुओं की तरह हैं जो एक विशाल और जटिल जाल को रोशन करते हैं - जिसने हजारों वर्षों से भारत को एकजुट रखा है। 

धार्मिक सभ्यता: एक जीवंत ताना-बाना

भारत दुनिया की अकेली ऐसी पुरानी सभ्यता है जो आज भी पूरी तरह जिंदा है और फल-फूल रही है। दूसरी कई बड़ी सभ्यताएं तो अब बस संग्रहालयों की चीज बनकर रह गई हैं। लेकिन भारत आज भी जोश और उमंग से भरे रीति-रिवाजों का जीता-जागता सबूत है। इसकी परंपराएं, इसके रंग और इसकी धुनें बाहरी हमलों, गुलामी और नए जमाने के दौर से गुजरीं, लेकिन अपना वजूद बचाए रखा।

इस जिंदादिली का सबसे शानदार सबूत भारत के त्योहारों के कैलेंडर में देखने को मिलता है। देश में एक त्योहार खत्म होता नहीं कि दूसरा आ जाता है। इससे खुशी और जश्न का माहौल हमेशा बना रहता है। इन्हीं त्योहारों में वो सबसे मजबूत धागे मिलते हैं जो इस देश के लोगों को आपस में जोड़ते हैं, चाहे वो दुनिया में कहीं भी हों।

लेकिन इन जश्न और खुशी के पीछे एक अनोखा राज छिपा है, जिसे बाकी दुनिया भूल चुकी है। ये राज है - शक्ति यानी नारी शक्ति का महत्व। देवी का केंद्रीय स्थान। भारत की संस्कृति और अध्यात्म में महिलाओं की अहमियत। त्योहारों में सजी-धजी हर महिला किसी रानी, राजकुमारी या देवी का रूप लगती है। वो गानों, नाच और पवित्र रस्मों के जरिए इस सभ्यता को आगे बढ़ाती है। एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से जोड़ती है।

विशाखा: वसंत का मिलन और समय का मेल

भारत में नए साल को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है, पर सबका आधार एक ही है। वह समय जब दिन और रात बराबर होते हैं। संस्कृत में इसे 'विशाखा' कहते हैं। इसका मतलब है 'दो बराबर हिस्से' - दिन और रात का पूरा बराबर होना। इसी शब्द से पंजाब में बैसाखी, केरल में विशु, असम में बिहू, और नेपाल में बिशु जैसे त्योहारों के नाम बने हैं।

मीम्स और सोशल मीडिया पर भले ही इन नामों के अंतर पर हंसी-मजाक होता है, पर असल में विशाखा शब्द से जुड़े ये सभी नाम एक ही बात कहते हैं - यह वह खास समय है जब सब कुछ नया होता है। कश्मीर में नवरेह, बंगाल और ओडिशा में पोहेला बोइशाख जिसे 'शुभो नोबोबोर्षो' कहकर बधाई दी जाती है। सिंध में चेती चांद (चैत्र महीने का चांद) या तमिल में पुथांडू - ये सभी चैत्र महीने (तमिल में चित्थिरै) में आते हैं और नए साल की शुरुआत करते हैं।

उगादि (एक नया समय), गुड़ी पड़वा (चांद के पक्ष का पहला दिन), या मणिपुर का चेईराओबा - नाम भले ही अलग हों, पर ये सभी एक साथ मिलकर फसलों की कटाई, नए फूलों के खिलने, नई शुरुआत और बसंत के आने का जश्न मनाते हैं। 

मिट्टी के घड़े में बसी सभ्यता: कुंभ, करग, कलशम 

भारतीय परंपराओं में सबसे दिलचस्प और पुराने प्रतीकों में से एक है साधारण मिट्टी का घड़ा। इसे कलश, करग या कुंभ जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लेकिन यह अलग-अलग त्योहारों और क्षेत्रों में एक जैसी पवित्र भावना लिए होता है। यह सिर्फ एक वस्तु नहीं, बल्कि मौके और जगह के अनुसार बदलकर आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व का रूप ले लेता है। दक्षिण भारत में, यह वरलक्ष्मी व्रत के दौरान आम के पत्ते और नारियल से सजा 'कलशम' बन जाता है। राजस्थान में, गणगौर के दौरान महिलाएं इसे जुलूसों में ले जाती हैं। जहां गौरी के शिव के साथ मिलन का जश्न मनाया जाता है। और सबसे बड़े उत्सव महाकुंभ मेले में, यह घड़ा (कुंभ) अमृत रखता है। इस दौरान लाखों-करोड़ों लोग शुद्धि और मोक्ष की खोज में इकट्ठा होते हैं।

सबसे दिलचस्प भाषाई और सांस्कृतिक जुड़ाव जो मुझे मिला, वह था कर्नाटक के करग त्योहार और उत्तर भारत के करवा चौथ के बीच। करग त्योहार, जिसे तमिल भाषी वह्नियकुला क्षत्रिय (थिगलास) मनाते हैं। यह द्रौपदी का सम्मान एक घड़े पर रखे जटिल फूलों के पिरामिड के रूप में करता है। यह रंगीन त्योहार, जिसमें नृत्य, भक्ति और नाटक का शानदार मिश्रण है। यह उत्सव हर साल पांच लाख से ज्यादा भक्तों को आकर्षित करता है, जो द्रौपदी अम्मा को अपनी पूर्वज और रक्षक के रूप में मानते हैं। 

वीरकुमार: द्रौपदी के योद्धा भक्तों की जीती-जागती परंपरा

कर्नाटक में द्रौपदी के वीर भक्त 'वीरकुमार' महाभारत की परंपरा को आज भी जिंदा रखे हुए हैं। हर साल मार्च में, जब एक व्यक्ति अपने सिर पर पवित्र घड़े को संभालकर चलता है, तब पूरा समुदाय सदियों पुरानी कहानी को फिर से जीता है। द्रौपदी से जुड़े होने के अलावा, 'करगा' शब्द 'करक' जैसा ही है - जैसे करक चतुर्थी, जिसे हम उत्तर भारत में करवा चौथ के नाम से जानते हैं।

बॉलीवुड फिल्मों में करवा चौथ को ऐसा दिखाया जाता है जैसे पत्नियां सिर्फ अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं। लेकिन असल में यह त्योहार नारीत्व का जश्न है। घड़ा, पानी, चांद और सोलह श्रृंगार में सजी औरत - हर चीज नारी शक्ति का प्रतीक है। अगर भारत में परंपरा से जुड़ा कोई महिला दिवस होता, तो वह शायद करक चतुर्थी ही होता।

इतनी अलग-अलग परंपराओं में घड़े का महत्वपूर्ण होना कोई संयोग नहीं है। यह जीवन का गहरा प्रतीक है। गुजरात में नवरात्रि के दौरान होने वाला गरबा नृत्य में घड़ा मां के गर्भ का प्रतीक है, जिसमें देवी की ज्योति रहती है। पूरे भारत में, घड़ा एक पवित्र चिन्ह है। कभी पूजा का बर्तन, कभी प्रजनन शक्ति का प्रतीक, तो कभी देवी के आशीर्वाद का माध्यम। जब तक भारत अपने त्योहारों, रीति-रिवाजों और साधारण घड़े में भी दिव्यता देखने की भावना को जिंदा रखेगा, तब तक नारी शक्ति फलती-फूलती रहेगी। देवी अपना आशीर्वाद देती रहेंगी। हमारी बेशकीमती विरासत अटूट बनी रहेगी। 

शिव मंदिरों का पवित्र भूगोल 

अगर आपको भारत की भौगोलिक एकता की प्राचीन और गहरी समझ का और प्रमाण चाहिए, तो प्रमुख शिव मंदिरों की व्यवस्था को देखिए। हिमालय में स्थित केदारनाथ से लेकर दक्षिण के रामेश्वरम तक, आठ मंदिर 79 डिग्री देशांतर रेखा पर एकदम सीधी लाइन में स्थित हैं। अलग-अलग हजार सालों में बने, अलग-अलग स्थापत्य शैलियों वाले और अलग-अलग राजवंशों द्वारा बनवाए गए ये मंदिर अपनी स्थिति में अद्भुत सटीकता रखते हैं। क्या यह एक संयोग है? या फिर हमारे पूर्वजों के पास ऐसा ज्ञान था जो समय से परे था।ऐसा ज्ञान जो स्थान और पवित्रता को ऐसे तरीकों से जोड़ता था जिसे हम अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं?

निष्कर्ष: विविधता में एकता, बंटवारा नहीं

हम भारत की विविधता पर इतना जोर देते हैं कि अक्सर इसकी अंदरूनी एकता का जश्न मनाना भूल जाते हैं। स्वास्तिक, जो पूरे एशिया में पवित्र प्रतीक है। पवित्र अग्नि (हवन कुंड) के डिजाइन जो पूरे देश में देखे जाते हैं। रीति-रिवाजों और मान्यताओं में साझा बातें - ये सब हमारी गहरी सभ्यता की निरंतरता की कहानी बताते हैं। लेकिन जब हम भाषाई और क्षेत्रीय राजनीति को इस साझा इतिहास से ऊपर रखते हैं, तो हम उन्हीं जालों में फंसने का खतरा मोल लेते हैं जो कभी औपनिवेशिक शासकों ने हमारे लिए बिछाए थे। भारत की ताकत हमेशा अपनी विविधताओं को एक साथ रखने की क्षमता रही है। जैसे एक बड़ी, जटिल कढ़ाई जिसमें हर धागा मायने रखता है।

तो, जैसे हम नए साल चैत्र नवरात्रि में प्रवेश करते हैं, आइए सिर्फ त्योहारों का ही नहीं बल्कि सभ्यता के जादू का भी जश्न मनाएं। वे अदृश्य लेकिन अविनाशी धागे जो भारत को एक बनाते हैं।

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