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कच्चातीवू : इस छोटे से द्वीप को लेकर भारत में इसलिए मचा है सियासी घमासान

1991 में तमिलनाडु विधानसभा ने प्रस्ताव पास किया था। इसमें इस द्वीप को वापस लेने की मांग की गई। 2008 में तत्कालीन सीएम जयललिता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका में कच्चातीवू द्वीप को लेकर हुए समझौते को अमान्य घोषित करने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया था कि श्रीलंका को कच्चातीवू गिफ्ट में देना असंवैधानिक है।

इंदिरा गांधी की सरकार के समय 1974 में कच्चातीवू द्वीप श्रीलंका को दे दिया गया था। / @avijeet_writes

भारत के दक्षिणी छोर और श्रीलंका के बीच यह एक छोटा सा द्वीप है। इसका नाम कच्चातीवू द्वीप है। श्रीलंका और रामेश्वरम (भारत) के बीच यह द्वीप स्थित है। इंदिरा गांधी की सरकार के समय 1974 में इस द्वीप को श्रीलंका को दे दिया गया था। इसे लेकर भारत में एक राजनीतिक विवाद छिड़ गया है। बीजेपी जहां इस द्वीप को फिर से हासिल करने की बात कर रही है। वहीं, विपक्ष इसे बीजेपी का चुनावी हथकंडा बता रहा है।

तमिलनाडु राज्य में भारत के रामेश्वरम शहर के उत्तर-पूर्व में और श्रीलंका के जाफना शहर के दक्षिण-पश्चिम में यह द्वीप है। इसमें पीने के पानी के स्रोत का अभाव है और इसमें केवल एक अकेला चर्च है, जो दोनों देशों के श्रद्धालुओं को आकर्षित करने वाले सालाना तीन दिवसीय उत्सव की मेजबानी करता है।

1921 के बाद से दोनों ब्रिटिश उपनिवेशों, भारत और श्रीलंका (तब सीलोन) ने कच्चातीवू के आसपास के पानी में मछली पकड़ने के अधिकारों का दावा किया था। हालांकि, भारत ने 1974 में एक सशर्त समझौते के तहत यह द्वीप श्रीलंका को सौंपा था। 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने श्रीलंका की राष्ट्रपति श्रीमावो भंडारनायके के साथ एक समझौते पर साइन किए थे। इसके बाद से ही कच्चातीवू द्वीप श्रीलंका का हो गया था।

यह मुद्दा तब फिर से सामने आया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी कांग्रेस पार्टी पर श्रीलंका को द्वीप सौंपने का आरोप लगाया। मोदी की यह टिप्पणी 1960 के दशक में कच्चातीवू के बारे में सरकार की चर्चाओं के संबंध में उनकी भारतीय जनता पार्टी के नेता के. अन्नामलाई द्वारा हाल के खुलासे से उपजी है। अन्नामलाई का दावा है कि केंद्र सरकार का लक्ष्य तमिलनाडु के मछुआरों के हितों की रक्षा के लिए कच्चातीवू को फिर से प्राप्त करना है।

हालांकि, इससे पहले भी यह मुद्दा उठ चुका है। 1991 में तमिलनाडु विधानसभा ने प्रस्ताव पास किया था। इसमें इस द्वीप को वापस लेने की मांग की गई। 2008 में तत्कालीन सीएम जयललिता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका में कच्चातीवू द्वीप को लेकर हुए समझौते को अमान्य घोषित करने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया था कि श्रीलंका को कच्चातीवू गिफ्ट में देना असंवैधानिक है।

2013 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि कच्चातीवू को श्रीलंका से 'फिर से हासिल' नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह कभी सीमांकन नहीं हुआ और विवादित क्षेत्र बना रहा। श्रीलंका सरकार का कहना है कि कच्चातीवू उसके क्षेत्राधिकार में आता है और द्वीप पर नियंत्रण के संबंध में उसे भारत से सरकारी सूचना प्राप्त होने की प्रतीक्षा है।

लेकिन, तमिलनाडु में बीजेपी प्रमुख के. अन्नामलाई द्वारा उजागर किए गए दस्तावेज 1960 के दशक में कच्चातीवू के संबंध में भारत सरकार के भीतर बहस को उजागर करते हैं। कुछ अधिकारियों ने ऐतिहासिक संप्रभुता के आधार पर भारत के दावे की वकालत की, लेकिन भारत ने द्वीप को श्रीलंका को दे दिया। वहीं, विपक्षी नेताओं का आरोप है कि बीजेपी आगामी आम चुनावों में वोट हासिल करने के लिए तमिलनाडु में संवेदनशील कच्चातीवू मुद्दे का इस्तेमाल कर रही है।

समझौते को चुनौती देने के लिए चल रही कानूनी लड़ाई के बीच भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्वीकार किया कि इस मुद्दे को बहुत लंबे समय तक सार्वजनिक जांच से छुपाया गया था। हालांकि, 1974 के समझौते पर फिर से विचार करने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने साफ किया कि मामला विचाराधीन है। पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का कहना है कि भारत को कच्चातीवू को पुनः प्राप्त करने के लिए युद्ध में शामिल होना होगा।

 

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