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आदि शंकराचार्य: कुंभ दर्शन के आधारस्तंभ

कुंभ मेला, जो प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित होता है, अपने पौराणिक संदर्भों से जुड़ा है।

आदि शंकराचार्य 8वीं शताब्दी के महान दार्शनिक और धर्मशास्त्री भारत के सबसे बड़े आध्यात्मिक सुधारकों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने उस समय हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जब बौद्ध और जैन परंपराएं इसके सामने चुनौती प्रस्तुत कर रही थीं। वे अद्वैत वेदांत के प्रख्यात प्रवर्तक थे, जो आत्मा (अहं) और ब्रह्म (परम सत्य) की अद्वैतता पर बल देता है। हालांकि, उनके बौद्धिक योगदान व्यापक रूप से स्वीकृत हैं, लेकिन उनके द्वारा कुंभ मेले की आधारशिला रखने का योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

कुंभ मेला, जो प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित होता है, अपने पौराणिक संदर्भों से जुड़ा है। किंवदंतियों के अनुसार, देवताओं और दानवों के बीच समुद्र मंथन के दौरान अमृत की कुछ बूंदें इन चार स्थानों पर गिरीं, जिससे ये पवित्र हो गए। लेकिन इन धार्मिक कथाओं को व्यवस्थित और चक्रीय तीर्थयात्रा में बदलने का श्रेय आदि शंकराचार्य को जाता है, जिन्होंने हिंदू धार्मिक परंपराओं को सुव्यवस्थित किया।

आदि शंकराचार्य: धर्म सुधारक और संस्थापक
आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण कर वेदांत दर्शन को पुनर्स्थापित किया जब यह कमजोर पड़ रहा था। उन्होंने चार प्रमुख मठों की स्थापना की—द्वारका (पश्चिम), पुरी (पूर्व), श्रंगेरी (दक्षिण) और जोशीमठ (उत्तर)। ये मठ न केवल धार्मिक केंद्र बने, बल्कि उन्होंने हिंदू दर्शन और शास्त्रों की शिक्षा को भी संरचित किया।

शंकराचार्य की दूरदृष्टि केवल मठीय परंपराओं तक सीमित नहीं थी। उन्होंने तीर्थयात्राओं और धार्मिक सम्मेलनों को भी संगठित किया जिससे हिंदू समाज एकजुट हो सके। कुंभ मेला इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है, जहाँ संत, विद्वान और भक्त एकत्र होकर आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचार-विमर्श करते हैं।

दर्शनशास्त्र का आधार
आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत दर्शन अद्वैतवाद पर आधारित है—जिसमें आत्मा (अहं) और ब्रह्म (परम सत्य) को एक ही सत्ता माना जाता है। यह द्वैत के भ्रम को नकारता है और मोक्ष को जीवन का परम लक्ष्य बताता है। उन्होंने उपनिषदों, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या करते हुए साधकों को आत्मबोध की दिशा में प्रेरित किया।

कुंभ मेला केवल एक स्नान पर्व नहीं, बल्कि एक विशाल बौद्धिक और आध्यात्मिक संगोष्ठी है। शंकराचार्य ने इसे ऐसा मंच माना जहाँ संत, मुनि और विद्वान अपने विचारों का आदान-प्रदान कर वेदांत के मूल सिद्धांतों को सुदृढ़ कर सकते हैं। आज भी कुंभ में होने वाले प्रवचन और चर्चाएँ उनकी इसी परंपरा को जीवंत बनाए हुए हैं।

शंकराचार्य की विरासत
केवल 32 वर्षों के संक्षिप्त जीवनकाल में आदि शंकराचार्य ने भारतीय दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया। उनके विचार और शिक्षाएँ आज भी साधकों और विद्वानों को प्रेरित कर रही हैं। उनके रचित ग्रंथ जैसे—‘विवेकचूड़ामणि’, ‘आत्मबोध’ और ‘उपदेश साहस्री’ वेदांत दर्शन के आधार स्तंभ माने जाते हैं।

शंकराचार्य की अद्वैत वेदांत की तार्किक व्याख्या ने सदियों से चली आ रही दार्शनिक चर्चाओं को दिशा दी। उनके सुधारवादी दृष्टिकोण ने हिंदू धर्म की संरचना को संगठित किया और कुंभ मेले जैसी परंपराओं को स्थायी रूप प्रदान किया। उनके द्वारा स्थापित मठ आज भी वैदिक अध्ययन और धार्मिक शिक्षा का प्रमुख केंद्र हैं।

कुंभ मेला: शंकराचार्य की दृष्टि का प्रतीक
आदि शंकराचार्य का प्रभाव केवल अद्वैत वेदांत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सभी हिंदू संप्रदायों में देखा जा सकता है। कुंभ मेला उनके प्रयासों का जीवंत प्रमाण है, जहाँ आस्था, दर्शन और परंपरा एक साथ मिलकर आध्यात्मिकता का भव्य उत्सव मनाते हैं।

उन्होंने न केवल वेदांत विचारधारा को पुनर्जीवित किया, बल्कि कुंभ मेले जैसी धार्मिक परंपराओं को संगठित कर हिंदू समाज को एकसूत्र में पिरोने का कार्य किया। जब श्रद्धालु कुंभ के दौरान संगम में डुबकी लगाते हैं, तो वे केवल एक धार्मिक अनुष्ठान में भाग नहीं लेते, बल्कि वे आदि शंकराचार्य की बौद्धिक और आध्यात्मिक विरासत को आत्मसात करते हैं।

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