मलयालम सिनेमा, भारतीय सिनेमा के क्षेत्र में इतिहास रच रही है। इस भाषा में एक के बाद एक क्या बेहतरीन फिल्में बन रही हैं। बीते दिनों आई फ़िल्म, ‘गोट लाइफ़’ इसी कड़ी में जुड़ गई है। फ़िल्म की कहानी, पलायन और सर्वाइवल पर बुनी गई है। ऐसा नहीं है कि सिनेमा इतिहास में पलायन पर कोई फ़िल्म नहीं बनी। हाल में ‘डंकी’ भी आई थी पर बेहद औसत और मेरे हिसाब से स्टारकास्ट की आड़ में एक बेकार फ़िल्म।
वहीं, पलायन पर बरसों पहले मैंने एक फ़िल्म देखी थी “पार”। मार्मिकता को पार करती यह फ़िल्म मेरी कई रातों की नींद ले उड़ी थी। आज भी पार को मैं पलायन की बेहतरीन मूवी मानती हूं। देश से दूर रहने पर पलायन शब्द कुछ और ही चुभता है। जहां भारत में एक तबका सालों से यह समझता रहा कि अमेरिका इज ड्रीम लैंड वहीं एक तबका यह भी पूछ बैठता था, वहां भेड़-बकरी तो नहीं चराते ? ये पूछने वाले लोग ज्यादातर गल्फ़ के दुःख भोग के आए होते हैं या उनके परिवार का कोई सदस्य।
गोट लाइफ़ फ़िल्म की कहानी, एक ऐसे ही युवा कि है जो सुनहरे जीवन की तलाश में गल्फ़ देश जाता है और फंस के रह जाता है। फ़िल्म के डायरेक्टर ने क्या बेहतरीन काम किया है। एक-एक डिटेल को ध्यान में रखा है। कितना सुंदर दिखाया है- एक ओर देश में नायक पानी के बीच से रेत निकालने का काम करता है दूसरी ओर सुनहरे सपने के बीच फंसा परदेश में रेगिस्तान में पानी ढूंढ रहा है…। फ़िल्म का संगीत भी कमाल है। एक फिलिस्तीनीगीत गीत का भी इस्तेमाल हुआ है इसमें, जिसका अर्थ है- “अच्छाई लाने वाले आपके शब्द मेरे मार्गदर्शक सितारे हैं। तुम्हारे बिना मैं दूर तक भटका हुआ हूं... मुझ पर कुछ प्रकाश डालो कि तुम कहा हां हो ?”
रेगिस्तान या दुनियां में भटके इंसान का अकेला सहारा शायद एक ईश्वर ही होगा। आस्तिक-नास्तिक से परे किसी एक विश्वास पर दुनिया घूम रही हो जैसे, यह इस गीत को सुनकर लगा। गायिका की पुकार ऐसी की कोई परमेश्वर है तो उसे आना ही है। जीवन देना ही होगा।
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