एक दौर था जब हास्य-व्यंग्य मनोरंजन के साथ-साथ समाज को जागरूक करने और गहरी भावनाओं को व्यक्त का सशक्त माध्यम था, लेकिन आज यह अपनी दिशा बदलता नज़र आ रहा है। चार्ली चैपलिन, लॉरेल एंड हार्डी और किशोर कुमार जैसे महान कलाकारों ने हास्य को एक कला का रूप दिया था। यह सिर्फ हंसने-हंसाने तक सीमित नहीं था बल्कि उसमें सामाजिक संदेश, भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक समरसता भी थी। लेकिन आज के दौर में स्टैंड-अप कॉमेडी ने एक अलग ही राह पकड़ ली है जिसमें अर्थहीन चुटकुले, आपत्तिजनक कंटेंट और सतही हास्य का बोलबाला है।
जब हास्य में गहराई हुआ करती थी
चार्ली चैपलिन की मॉडर्न टाइम्स और द ग्रेट डिक्टेटर जैसी फिल्मों ने मूक होते हुए भी हास्य के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को उठाया था। उनकी अद्वितीय शैली ने दर्शकों को हंसाने के साथ-साथ गरीबी, असमानता और श्रमिकों के संघर्षों की तरफ भी ध्यान खींचा था। भारतीय सिनेमा में महमूद और जॉनी वॉकर जैसे हास्य कलाकारों ने साफ-सुथरी और पारिवारिक कॉमेडी को जन-जन तक पहुंचाया। उनकी कॉमेडी सामान्य जिंदगी के पलों, टाइमिंग और चतुराईपूर्ण नजरिए पर आधारित था।
वर्तमान स्टैंड-अप का बदलता रूप
स्टैंड-अप कॉमेडी ने जब मुख्यधारा में कदम रखा तो इसमें एक नई ऊर्जा और ताजगी थी। रॉबिन विलियम्स और जॉर्ज कार्लिन जैसे कलाकारों ने सामाजिक मुद्दों को चुनौतीपूर्ण और विचारोत्तेजक ढंग से पेश किया। लेकिन हाल के वर्षों में स्टैंड-अप का स्तर गिरता जा रहा है। अब कई कलाकार सतही हास्य, गाली-गलौज और सोशल मीडिया ट्रेंड्स पर निर्भर होकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं।
अधिकतर स्टैंड-अप कॉमेडी में आजकल अपमानजनक मजाक, राजनीतिक विवादों पर तंज और धार्मिक या सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रहार किया जा रहा है। व्यंग्य हमेशा से हास्य का हिस्सा रहा है, लेकिन आज का व्यंग्य अक्सर मर्यादा की सीमा लांघता हुआ नजर आता है जिससे समाज में अनावश्यक विभाजन पैदा हो रहा है।
क्या यह बदलाव खतरनाक है?
एक्सपर्ट्स का मानना है कि मौजूदा स्टैंड-अप कॉमेडी एक ऐसी पीढ़ी को जन्म दे रही है, जो हास्य को केवल मज़ाक उड़ाने के रूप में देखती है। सोशल मीडिया ने इस चलन को और भी बढ़ावा दिया है, जहां व्यंग्य के नाम पर अपमानजनक टिप्पणियां तेजी से वायरल हो जाती हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि युवा दर्शक इस कंटेंट को बिना किसी आलोचनात्मक सोच के ग्रहण कर रहे हैं। इससे उनके मन में यह धारणा बन रही है कि अपमान और गाली-गलौज ही हास्य का असली रूप है।
समाधान क्या है?
अगर हास्य को उसकी मूल भावना में वापस लाना है तो इसे झटपट लोकप्रियता के लिए सस्ते कंटेंट पर निर्भरता छोड़कर फिर से कथात्मकता, परिस्थितिजन्य कॉमेडी और सार्थक व्यंग्य की ओर लौटना होगा। सच्चे हास्य कलाकार केवल हंसाने तक ही सीमित नहीं रहते, वे सोचने पर भी मजबूर करते हैं।
समाजशास्त्रियों और सांस्कृतिक विश्लेषकों का मानना है कि अब समय आ गया है कि हास्य फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटे, जहां यह केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं था बल्कि समाज को जोड़ने और सकारात्मक बदलाव लाने का सशक्त साधन था।
(रिपोर्ट- जागृति शर्मा, नई दिल्ली)
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