विकास की तरह ही राजनीति एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। आत्मनिरीक्षण, पुरानी और महत्वपूर्ण परंपराओं को पीछे छोड़ना, समय और लोगों की मांग के मुताबिक बदलाव लाना और नई प्रक्रियाओं व प्रथाओं को अपनाना राजनीति को समय के साथ प्रासंगिक बनाता है।
हालांकि जरूरी नहीं कि ये बदलाव दलों के राजनीतिक क्षितिज में एकसमान हों। कुछ पार्टियां वंशवादी राजनीति के खिलाफ होती हैं जबकि कुछ पार्टियां एक परिवार एक टिकट के सिद्धांत पर चलती हैं।
कुछ दल अपने नेताओं को उम्र की सीमा में बांधने या बुजुर्ग पदाधिकारियों के कार्यकाल को सीमित करने की तरफ कदम उठाते हैं तो कुछ अनुभव और वरिष्ठता को महत्व देने को तवज्जो देते हैं।
भारत में पंजाब की सबसे पुरानी पार्टी शिरोमणि अकाली दल समेत कुछ क्षेत्रीय दलों को देखें तो उनकी सबसे बड़ी आलोचना इस बात को लेकर की जाती है कि उनमें एक ही परिवार का वर्चस्व रहता है।
शिरोमणि अकाली दल देश के राजनीतिक क्षितिज पर ब्रिटिश शासन के दौरान किसानों के संघर्ष से उपजी पार्टी है। अपनी स्थापना के 100 साल पूरे होने पर यह एक तरह से हाशिये पर पहुंच गई है। 2022 के पंजाब विधानसभा चुनावों में 117 सदस्यीय सदन में यह केवल तीन सीटें ही जीत पाई।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ इसका लंबा जुड़ाव रहा है, लेकिन एनडीए सरकार द्वारा कृषि को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए विवादास्पद कानूनों के कारण यह गठबंधन भी धुआं हो गया था।
अब लोकसभा चुनाव से पहले, ये दोनों राजनीतिक दल एक बार फिर से पुराने संबंधों में नई जान डालने के लिए टेबल पर आ गए हैं। पंजाब से लोकसभा की 13 सीटों के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया शुरू होने से पहले दोनों दलों के रूख को लेकर राजनीतिक चर्चाएं गरम हो गई हैं।
भाजपा नेतृत्व कथित तौर पर यह सुझाव दे रहा है कि एक परिवार एक टिकट के नियम को अपनाने से उसके संभावित गठबंधन सहयोगी को भी फायदा होगा। अगर शिअद नेतृत्व इस सुझाव को स्वीकार कर लेता है तो पार्टी कार्यकर्ताओं से नाखुशी का खतरा भी कम होगा क्योंकि उन्हें आगामी चुनावी समर में पार्टी उम्मीदवार बनने के अधिक अवसर मिलेंगे।
हालांकि यह अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि शिअद नेतृत्व 2024 के लोकसभा चुनावों में एक परिवार एक टिकट का फार्मूला अपनाएगा। पार्टी इस वक्त अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। उसके पास विकल्प सीमित हैं।
शिअद अगर लगातार चौथी बार बठिंडा सीट बचाने के लिए हरसिमरत कौर बादल को मैदान में उतारने का फैसला करती है और पार्टी प्रमुख सुखबीर सिंह बादल आगामी राजनीतिक लड़ाई के लिए कमर कस लेते हैं तो 2024 का लोकसभा चुनाव दो बादलों – प्रकाश सिंह और सुखबीर सिंह के बिना पहली सियासी जंग साबित होगा।
इसका एकमात्र अपवाद 1992 था जब शिअद ने चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया था। उस समय राज्य में 22 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था और बेअंत सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करीब दो-तिहाई बहुमत मिला था। कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में अकाली दल से अलग हुए एक समूह ने चुनाव लड़ा था और तीन सीटें जीती थीं। इसमें कैप्टन को एक सीट पर निर्विरोध जीत मिली थी जबकि दूसरी सीट खरार से उनकी जमानत जब्त हो गई थी।
देखना होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर शिरोमणि अकाली दल क्या फैसला करता है। इस लिहाज से अगले 24 से 48 घंटे अहम साबित हो सकते हैं। सबकी नजरें इस बात पर हैं कि शिरोमणि अकाली दल का निर्णय क्या होगा।
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